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( शान्तिसुधासिन्धु )
लोग जबतक किसीको दुःख नहीं दे लेते, जबतक कोई पाप नहीं कर लेते नबतक उन्हें संतोष नहीं होता है। इस प्रकार सज्जन लोगोंको अपने आत्मजन्य आनन्दमेंही संतोष होता है, अथवा अन्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगा देनसे संतोष होता है, दूसरों की कसिहि मानेपर संतोष होता है, अतएव भव्य जीवों को इसप्रकार अपने-अपने कर्मोका उदय समझ लेना चाहिए, और अशुभ कार्योंका त्याग कर, पुण्य कार्योंका सम्पादन करना चाहिए, अथवा आत्माका कल्याण करने के लिए अपने आत्मामें लीन होने का प्रयत्न करना चाहिए, यह मंसारका सार है, और सब असार है।
प्रश्न- पंचभूतं बिना जीवः क्वापि स्याम्मे न वा वद ?
अर्थ- हे भगवान ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचभूतमय शरीरके विना यह जीच कहीं अन्यत्र रहता है, वा नहीं ? उ. पुष्पे सुगंधश्च तिलेपि तेलं, रसोहि चेछो कनक शिलायाम्
काष्ठेपि वन्हिघुतमेव दुग्धे, निम्ने कटुत्वंच च विषं च सर्ये । सजीवदेहेस्ति तथात्मरामः सुखी च दुःखी सुजनः सदाहम् । रोगी विरोगी ह्यहमेव दुष्टो, ह्येवं ह्मबोधाद् हुदि मन्यमान संसारसिंधौ भ्रमतीह कोपि, स एव जीवोऽस्त्यवगम्य चवं । गम्यः स्वसंवेदनतः स शुद्धः स्यात्पंचभूतादिविकारबाह्यः २९३ ___ अर्थ- जिस प्रकार पुष्पमें सुगंध रहता है, तिलोंमें तैल रहता है, ईखमें रस रहता है, कनक-पाषाणमें सुवर्ण रहता है, लकडी में अग्नि रहती है, दूधमें घी रहता है, नीममें कड़वापन रहता है, और सर्पमें विष रहता है, उस प्रकार सजीव शरीरमें यह आत्मा रहता है। जो पुरुष अज्ञानी है, वह अपने अज्ञानके कारण यह समझता है. कि शरीरविशिष्ट में सुखी हूं, में ही दुःखी हैं, मैं ही सज्जन हूं, में ही रोगी हूं, में ही नीरोग हूं, और मैं ही दुष्ट हूं, इसप्रकार अपने अज्ञानके कारण मानता हुआ यह जीव संसाररूपी महासागरमें परिभ्रमण किया करता है । इस प्रकार मानता हुआ जो जीव इस संसारमें परिभ्रमण करता है उसको जीव समझना चाहिए। इस जीवका शुद्धस्वरूप पृथ्वी, जल, अग्नि,