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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु) विकारोंका त्याग हो जानेसे और शरीरसे ममत्व छट जानेसे फिर वह आत्मा शरीरमें रोगादिक हो जानेपर अपने आत्माको रोगी वा सुखी दुःस्त्री नहीं समझता । फिर तो यह अपने याला को भारतथि : भिन्न समझने लगता है, और फिर आत्माके समस्त विकारोंका त्यागकर अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है, तदनंतर तपश्चरण और ध्यानके द्वारा समस्त कार्योंको नष्टकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह आत्माका सर्वोत्कृष्ट कल्याण है। प्रश्न- कः पवित्रोस्ति जीवः को वद मे सिद्धये प्रभो ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में कौनसा जीव पवित्र है ? उ. दीने दया धर्मरते च भक्तिः प्रातिर्गुरौप निस्ता च सौख्ये । सुसाम्यता सर्वतनी विचारे कार्पण्यता कर्मविवर्धने च ॥ २९४ ॥ सदैव वाण्या मृदुता च सत्यं विज्ञानता बन्धविभेवने च । स्वर्णोक्षमार्गे रुचिता च यस्य स एव चोक्तो भुवने पवित्रः ।। ____ अर्थ- जो मनुष्य दीन जीवोंपर दया धारण करता है, धर्मात्मा लोगोंमें भक्ति करता है, गुरु में प्रेम धारण करता है, इन्द्रियजन्य सुखोंमें निस्पृहता धारण करता है, समस्त प्राणियोंम तथा समस्त विचारोंमें समानता धारण करता है, कर्म-वन्धनोंको बढ़ाने में कृपणता धारण करता है, वाणीमें सदाकाल मीठापन और सत्यता धारण करता है, कर्मोको नष्ट करने में जो विज्ञानता धारण करता है, और जो स्वर्ग और मोक्षमार्गमें रुचि धारण करता है, वही मनुष्य इस संसारमें पवित्र माना जाता है। भावार्थ- इस जीवके साथ अनादिकालसे जो काँका समुदाय लगा हआ है, वही इस जीवको अपवित्र बना रहा है। कर्मोके उदय होनेसे इस जीवके परिणाम रागद्वेष वा मोहरूप परिणत हो जाते हैं। और राग-द्वेष वा मोहही इस आत्माको अपवित्र बना देता हैं । जब यह आत्मा कोके उदय मंद होनेपर सम्प्रग्दर्शन प्रगट कर लेता है, तथा सम्यग्दर्शन के प्रगट होने से यह जीव राग-द्वेष वा मोहका त्याग
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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