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( शान्तिसुधासिन्धु )
हितोपदेशी होता है, जो वीतराग और सर्वज्ञ नहीं होता वह कभी हितोपदेशी नहीं होता। इसलिए देवकी परीक्षा करनेके लिए वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये तीन गुण देखने चाहिए। जिनमें ये तीन गुण हों वही देव है । जिनमें ये तीनो गुण न हो, काम, क्रोध, आदि विकार हो, वा स्त्री, अस्त्र, शस्त्र वा वस्त्राभूषण परिग्रह हो, वा भूख, प्यास आदि दोष हो तो उनको देव कभी नहीं मानना चाहिए । देवकी परीक्षा इस प्रकार हो सकती है। इस प्रकार स्मतिकी परीक्षा सत् और असत्के विचार करने में होनी है । जो मनुष्य अपने हित और अहितका विचार नहीं कर सकते, अपने आत्माका कल्याण नहीं कर सकते, उनकी स्मृति बा बुद्धि असत् समझनी चाहिए । साधुकी परीक्षा उपसर्गके समय होती है । यदि कोई दुष्ट पुरुष किसी माधको गाली देता है, वा मारता है, तो उस समय समता धारण करना साधुकां काम है। यदि किसी समय कोई आकस्मिक आपत्ति आ जावे तो उस ममय भी साधुओंको समता और शांति धारण करना चाहिए 1 जो साधु किसी उपसर्गके समय अथवा आकस्मिक आपत्तिके समय व्यग्र हो जाता है. वा क्रोध करने लगता है, वह कभी साध नहीं हो सकता। अपने आत्माके ध्यानमें लीन रहनेवाले साधुके हृदयमें भारीसे भारी आपत्ति आनेपरभी कभी किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं हो सकता। इसमे यथार्थ साधकी परीक्षा हो सकती है। इस प्रकार स्त्री की परीक्षा विपतिके समय की जाती है। जो स्त्री विपत्तिके समयमें भी पतिकी सेवा करती है, वही स्त्री पतिपरायणा कहलाती है, अन्य नहीं । मक्तिकी परीक्षा उसके यथार्थ मार्गमें चलनेसे होती है । जो साधु कामादिक समस्त विकारोंसे रहित होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रको धारण कर लेता है, तथा अनुक्रमसे चारित्रकी पूर्णता करता हुआ वीतराग सर्वज्ञ हो जाता है, वही साधु मोक्ष प्राप्त कर सकता है । जो पुरुष साधु होकरभी परिग्रह धारण करता है, तथा आत्मज्ञानसे वंचित रहता है, वह साधु नहीं कहला सकता, ऐसे साधुको कभीभी मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती । कर्मोंका सर्वथा नाश होना मोक्ष है, तथा कर्मोंके नाश करने के ध्यान तपश्चरण आदि जितने साधन हैं, वे सब उसके मार्ग हैं। ऐसे साधनोंसेही मोक्ष की प्राप्तिका अनुमान किया