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{ शान्तिमृध्रामिन्यु ।
भावार्थ- यह आत्मा अनादिकालसे कर्मों के आधीन होकर अनंत दुःम्ल भोग रहा है। उन कर्मोसे छुटनेके लिए सबसे पहले आत्मज्ञानकी आवश्यकता है। जो पुरुष आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही पुरुष रागद्वेष, काम, कषाय, आदि विकारोंका त्याग कर, तथा बाहय परिग्रहका त्याग कर, उन कर्मोको नष्ट करने के लिए, साधू अबस्था धारण करता है । इसका कारण यह है कि, कर्मों का नाश ध्यान और तपश्चरणके द्वारा होता है, तथा वह ध्यान और तपश्चरण गृहस्थ अवस्थामें हो नहीं सकता, इसलिए वह साधु होकर रातदिन ध्यान वा तपश्चरण किया करता है । परंतु जो लोग आन्मज्ञान प्राप्त किये बिनाही साधु हो जाते हैं, वे साधु अपने अशुभ ध्यानके द्वारा गृहस्थ अवस्थासे भी अधिक पाण उत्पन्न करने रहते हैं। ऐसे साधु बिना आत्मज्ञानके अपनी आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकते । इस प्रकार ब्रह्म उदका अर्थ आत्मा है । जो पुरुष अपने ब्रह्म अर्थात् आत्मामें लीन बने रहते हैं, उनको ब्रह्मचारी कहते हैं। ऐसे ब्रह्मचारी धन, स्त्री, आदिके रहते हुए भी उन सबका त्याग कर देते है। इसलिए ऐसा ब्रह्मचारीही वास्तविक ब्रह्मचारी है । जिसकी सन्त्र लालसाएं नष्ट हो जाती हैं, वही ब्रह्मचारी कहलाता है। जिसकी लालसाएं नष्ट नहीं होती वह कभी ब्रह्मचारी नहीं कहलाता । इस प्रकार अपने-अपने स्वार्थ के लिए सभी लोग देवोंकी भक्ति करते हैं, बा मंत्रोका जप करते हैं, परंतु वह भक्ति
और जप कर्मोको नष्ट नहीं कर सकता । उससे तो बहुत से अशुभ कर्मोका बंधही होता है । इसलिए कर्मोको नष्ट करनेके लिए तथा अपने आत्माको शुद्ध निर्मल बनानेके लिए जो देवभक्ति की जाती है, वा जप किया जाता है वहही देवभक्ति वा जप कहलाता है । यही समझकर भव्यजीवोंको सबसे पहले अपनी लालसाओंका त्याग कर देना चाहिए
और फिर अपने आत्माके गुणोंका अनुभव करते हुए कर्मोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही इस संसारमें सार है।
प्रश्न- कस्य त्यागेन जीवः को सुखी स्यावद मे गुरो?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारम यह जीव किस-किसका त्याग करनेसे सुखी होता है।