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शान्तिसुधासिन्धु )
उ. त्याज्यो गुरुः स्वात्मसुखेन शून्यो, देवोपि चाष्टादशदोषयुक्तः । त्याज्यश्च धर्मोपि दद्याविहीनो, स्नेहविना बंधुसुमित्रवर्गः ॥ श्रेष्ठश्च राजाप्यहितस्य कर्ता, त्याज्यः स देशो व्रतशीलहीनः । त्याज्या हि नारी कलहस्य कर्त्री, क्रियाश्च हेया अपि भावशून्याः
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अर्थ-- इस जीवको निश्चिन्त और मुखी होनेके लिए ऐसे गुरुका त्याग कर देना चाहिए, जो अपने आत्मसुखका अनुभव भी न कर सकता हो । ऐसे देवका त्याग कर देना चाहिए, जिसमें अठारह दोषों में म कोईभी दोष हो । ऐसे धर्मकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो दयामे रहित हो, ऐसे भाई-बंधुओंका तथा मित्रवर्गोकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो स्नेहभी न रखते हों। उस श्रेष्ठ राजाकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो अपना अहित करनेवाला हो। उस देशकाभी त्याग कर देना चाहिए, जिसमें व्रत और शीलों का भी पालन न हो सकत हो । उस स्त्रीकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो रातदिन कलह करनेवाली हो। और ऐसी क्रियाओंकाभी त्याग कर देना चाहिए जो भावपूर्वक न की जाती हों ।
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भावार्थ- आत्मसुख की प्राप्ति के लिए गुरु किया जाता है, तथा आत्मसुख उसीसे प्राप्त हो सकता है, जो स्वयं आत्मसुखका अनुभव करता हो । जो गुरु स्वयं आत्मसुखका अनुभव नहीं करता. अपना समस्त जीवन इंद्रियों केही सुखमें व्यतीत कर देता है, उसको गुरु बनाने से कोई लाभ नहीं । इसलिए ऐसे गुस्का त्याग कर देनाही सबसे अच्छा है । देवकी सेवा स्वयं निर्विकार और निर्दोष बनने के लिए की जाती है, तथा निर्दोष और निर्विकार उसी देवकी सेवा करनेमे हो सकता है, जो देव स्वयं निर्दोष निर्विकार तथा वीतराग सर्वेज हो । यह निश्चित सिद्धांत है, कि जो देव निर्दोष होता है, वह अवश्य सर्वज्ञ होता है । इसलिए ऐसे देवकी सेवा करनेसेही यह मनुष्य वीतराग सर्वज्ञ हो सकता है। जो देव-देव होकरभी निर्दोष न हो, ऐसे देवकी सेवा करने से कोई लाभ नहीं हो सकता । इसलिए ऐसे देवकी सेवाका त्याग कर देनाही अच्छा है। इस प्रकार धर्मका धारण, जीवोंकी रक्षाके लिए किया जाता है । जो धर्म स्वयं दया पालन करनेका आदेश नहीं