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। शान्ति मुभामिन्धु )
देता ऐसे धर्मसे पापके सिवाय और क्या लोभ हो सकता है । इसलिए ऐसे धर्मकाभी त्याग कर देना अच्छा है। बंधु मित्रभी स्नेह रखने के लिए, समयपर सहायता पहुंचाने के लिए और हर्ष-विषादमें साथ देनेके लिये होते हैं । जो मित्र व बंधुजन स्नेहभी नहीं रखते हों, वे भला सहायता क्या पहुंचा सकेंगे? इसलिए ऐसे बंध व मित्रोंसे कोई लाभ नहीं है। ऐसे बंधु व मित्रोंकाभी त्याग कर देना चाहिए। जो राजा उत्तमभी हो, परंतु अहित करनेवाला हो, प्रजाको, लोगोंको दुःख पहुंचाता हो, तो ऐसे राजासेभी कोई लाभ नहीं है । राजा तो प्रजाका हित करने और सुख पहुंचानेके लिए होता है । जो राजा प्रजाका हित न करे, ऐसे राजासे क्या लाभ है? इस प्रकार जिस देश में रहने से अपने धर्मका साधन न होता हो, सम्यग्दर्शनका पालन न होता हो, व्रत बा शीलका पालन न होता हो, तो उस देशका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । धर्मसाधन करनाही इस मनुष्यजन्मका सार है। यदि इस धर्मकासाधन जिस देश में न होता हो, जिस देशमें कोई जिनालय न हो, धर्मात्मा लोग न हों, साधु वा गुरु न हों, ऐसे देश में जानाही नहीं चाहिए । यदि किसी कारणसे पहुंच जाय तो शीघ्रहीं उसका त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार कलह करनेवाली स्त्रीसे सदा दुःख अना रहता है, इसलिए ऐसी स्त्रीसे सुख नहीं मिल सकता । स्त्री सुत्रके लिए होती है। यदि उससे दुःखही पहुंचता रहे, तो ऐसी स्त्रीसे प्रया लाभ है ? इस प्रकार देवपूजा, गुरुकी उपासना, दान देना, धर्मग्रंथोंका पठन-पाठन करना, आदि जितनी क्रियाएं हैं, वे सब भावपूर्वक करनेसेही सफल होती हैं। बिना भादोंके उन क्रियाओंसे जैसा चाहिए, वैसा फल नहीं मिलता, इसलिए सब क्रियाए भावपूर्वक ही होनी चाहिए ।
प्रश्न-- कामखन्लेन योग्रस्तः स कीदृशो वद में प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो पुरुष इस दुष्ट कामदेवके वशीभूत रहते हैं, वे कैसे कहलाते हैं ? उ. ग्रस्तोस्ति यः कामखलेन जीवः स्वानन्दसाम्राज्यविनाशकेन । वक्षः सकुण्ठश्चतुरोपि मूर्खः कोपी समान् भयवांश्च शूरः ॥