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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) और कएँकी गहराइके साथ साथ नीचे उतरता जाता है । इसीप्रकार जो जीव अन्य जीवोंका उद्धार करता रहता है वा अन्य जीवोंका कल्याण करता है उसका कल्याण सदा होता है और जो पुरुष दूसरोंके अहित करनेका विचार करता रहता है या किसीको न्यायमार्गसे च्युत करना चाहता है वा धर्ममार्गसे न्युन करना चाहता है वा किसीका धन लूटना चाहता है वा अपनी प्रसिद्धि के लिए दूसरोंको गिराना चाहता है अथवा अन्य किसी भी तरहसे दूसरोंको हानी पहुंचाना चाहता है वह जीव इस जन्ममें भी नीचा दिखता है, दुःखी दरिद्री होता है और परलोकमें जाकर नरक निगोदके असह्य दुःख भोगता रहता है । इसलिए हे आत्मन् ! तू अपने आत्माका कल्याण करता हुआ सदा दूसरोंका कल्याण करता रह । प्रश्न- कृतकर्मफलं जीवो स्वयं भुक्तेऽथवा परः ? अर्थ- हे भगवन् ! यह जीव अपने किये हुए कमोका फल स्वयं भोगता है अथवा अन्य किसीको भोगना पडता है ? उत्तर- शुभाशुभं यत्किमपोह कर्म, कृतं च यैर्वा खलु कारितं हि । तैरेव तत्कर्मफलं हठाद्धि, प्रभुज्यते राज्यपदे स्थितेऽपि ॥ २७ ॥ स्पष्टं परर्दश्यत एव लोके, यस्यास्ति देहे विषमश्च रोगः । स एव तं सहते स्थितेऽपि, न स्यात्सभागी प्रियांधवेपि ॥ २८ ॥ अर्थ -- संसारमें यह बात स्पष्ट रीतिसे दिखाई पड़ती है कि जिसके शरीरमें कोई विषम रोग हो जाता है वही पुरुष अनेक प्रिय भाई बंधुओंके होनेपर भी अकेला ही उस दुःखको सहन करता रहता है उस समय कोई भी भाई बंधु उसके दुःखको नहीं बांट सकते । इसी प्रकार जिस जीवने शुभ अशुभ जो कुछ कर्म किये हैं वा जो कुछ कराये हैं उन समस्त कर्मोका फल यही जीव बडे-बडे राज्य सिंहासन पर विराजमान होकर भी परवश होकर सहन करता रहता है ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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