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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- इस संसारमं जो कर्ता है वही भोक्ता है । उसका कारण यह है कि जिस समय यह जीव किसी भी शुभ वा अशुभ कार्यको करनेका चितवन करता है वा उसकी सामग्री इकट्ठी करता है अथवा उस कामको करने लगता है उसी समय इस जीवके जैसे शुभ वा अशुभ परिणाम होते हैं उन्हीं परिणामोंके अनुसार उसी समय इस जीवके वैसे ही शुभ अथवा अशुभ कर्मका बंध हो जाता है उस समय यदि शुभ परिणाम हों तो शुभ कर्मोका बंध होता है और यदि अशुभ परिणाम हों तो अशुभ बंध होता है । तथा उसी समय इस जीवके परिणामोंमें यदि तीव्र कषाय होते हैं तो उन कर्मों में अधिक दिन तक प्रबल दुःख देनकी शक्ति पड़ जाती है और यदि कषायोंकी मंदता होती है तो थोडे दिनों तक थोडे सुख वा दुःख देने की शक्ति पड जाती है, इसप्रकार जिन कर्मों में सुख वा दुःख देने की शक्ति पड गई है और मुख देने के लिए कालकी मर्यादा वा स्थिति भी पड़ गई है ऐसे वे कर्म अपने समयके अनुसार उसी समय उदयमें आ जाते हैं और उसी जीनको सुख वा दुःख देने लगते है । उदयमं आनेपर वे कर्म अपने सुख दुःख देनेके निमित्त भी सब वैसे ही मिला लेते हैं । यद्यपि कर्म जड वा पुद्गल हैं परंतु जिस प्रकार जीव पदार्थमें गमनागमन करनेकी वा क्रिया करनेकी शक्ति होती है उसी प्रकार पुद्गलों में भी गमनागमन करनेकी वा क्रिया करनेकी शक्ति होती है । जिसप्रकार सूर्य चन्द्रमा वा नक्षत्रोंके विमान पुद्गलके बने हुए होनेपर भी समयानुसार अपने आप उदय अस्त होते रहते हैं वा पानीका बरसना वा दक्षिणी पश्चिमी वायुका चलना समयानुसार अपने आप होता रहता है उसीप्रकार कर्म भी अपने समयपर अपने आप उदयमें आकर इस जीवको सुख वा दुःख दिया करते हैं और यह जीव उन कर्मोके उदयसे उस किये हुए अपने कर्मके अनुसार स्वयं दुःख वा सुख भोगा करता है । उस सुख वा दुःखको अन्य कोई भी जीव नहीं बांट सकता । जिसप्रकार किसी रोगीका दुःख अन्य कोई भी नहीं बांट सकता उसी प्रकार किसीके किए हुए कर्मोंका वा उनके उदयमे होनेवाले सुख दुःखको कोई नहीं बांट सकता यह अटल सिद्धांत है।
प्रश्न- पशुन् नयन्ति बध्वेति रज्जुना केन मानवान् ?