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( शान्तिसुधासिन्धु )
स्थानपर नहीं ठहर सकता । जन ग्रह जीव विषशकापायोंका त्यागकर ध्यान और तपश्चरण करने लगता है तब यह जीव समस्त कर्मोको नाश कर सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है और फिर अनंत काल तक वहीं विराजमान रहता है । कर्मोका अभाव होनेसे फिर उसका परिभ्रमण सर्वथा हट जाता है।
प्रश्न- स्वामिन् ! पातयितुं चेच्छत्स्वयं पतेन वा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य दूसरोंको गिराना चाहता है वह स्वयं गिरता है वा नहीं ? उत्तर- यः कोपि दुष्टः खलु दुष्टबुद्ध्या
स्वमानवृद्ध्य स्वधनादिहेतोः । न्यायात्स्वधर्मात्स्वपदात्सुमार्यात् लक्षम्यास्तथा पातयितुं सदा यः ॥ २५ ॥ अन्यान् सुबन्धून् यततेऽन्धकूपे, स एव पापीह तथान्यलोके । तत्पापयोगात्स्वयमेव भीमेः, पतत्यवश्यं नरके निगोदे ॥ २६ ॥
अर्थ- जो कोई दुष्ट पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धिके कारण अपना धन बढ जाने के कारण अपने अभिमानको बढानेके लिए अन्य धर्मात्मा भाइयोंको न्यायमार्गसे गिराना चाहता है वा अपने धर्मसे गिराना चाहता है वा अपने स्थानसे गिराना चाहता है अथवा श्रेष्ठमार्गसे गिराना चाहता है अथवा किसीको धनसे गिराना चाहता है अथवा अन्य किसी अन्धकूपमें गिराना चाहता है वह पापी पुरुष अपने उस महापापके कारण दूसरे जन्ममें जाकर अत्यंत भयानक नरकमें वा निगोदमें अवश्य गिर जाता है।
भावार्थ- इस संसारमें जो जीव जैसा करता है यह वैसा ही फल पाता है । जो मनुष्य जिनालयकी शिम्बर बनता है वह शिस्त्र रकी उंचाईके साथ-साथ उचां चढ़ता जाता है तथा जो कूआ खोदता हैं