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( शान्तिसूत्रासिन्धु )
अर्थ - हे देव ! अब यह बतलाइये कि यह जीव सदा काल किमी एक स्थानपर क्यों नहीं रहता है । परिभ्रमण क्यों किया करता है । उत्तर- पूर्वक्रियाकर्मयशाच्च जीवो
हात्यन्तनिद्ये विषमे भवान्धौ । भूत्वा ह्यसाम्यो भ्रमतीह नित्यं वस्त्रान्नपानं रहितश्च वीनः ॥ २३ ॥
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पूर्वप्रयमादिवा
भुवोह व धूमरथो यथा हि । कुलालचक्रं वरगीतयंत्रं गतिविचित्रास्ति कुकर्मणो हो ॥ २४ ॥
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अर्थ – जिस प्रकार हवाई जहाज पहले के प्रयोगसे अर्थात् चावी भर देनेसे या यंत्र घुमा देनेसे आकाशमं उडा करता है किसी एक स्थानपर नहीं ठहरता तथा पृथ्वीपर चलनेवाली रेलगाडी एक स्थान पर नहीं ठहरती अथवा कुंभारका चक्र एक बार घुमा देनेपर घूमता ही रहता है तथा फोनोग्राफकी चूडी एक बार चावी देनेपर वह धूमती ही रहती है उसी प्रकार इस जीवने जैसे कर्म किये हैं उनके उदय होनेपर यह जीव राग द्वेषको धारण करता हुआ तथा अन्न पान वस्त्र आदिसे रहित अत्यंत दीन होता हुआ अत्यंत निन्द्य और भयानक ऐसे संसाररूपी समुद्र में सदा काल परिभ्रमण किया करता है। सो ठीक ही है इस संसार में अशुभ कर्मोंका उदय वा कुकमौका फल बहुत ही विचित्र होता है ।
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भावार्थ -- यह जीव जैसे कर्म करता है उनके उदय होनेपर उसको मी ही गति में वैसी ही योनिमें और वैसाही शरीर धारण कर जन्म लेना पड़ता है | कभी नरकमें जाकर जन्म लेता है, कभी तियंच योनि में जाकर अनेक प्रकारके कीड़े मकोडोंमें जन्म लेता है, कभी मनुष्य योनिमें ऊंच नीच दुःखी दरिद्री वा धनी सुखी होकर जन्म लेता है और कभी व्यंतर ज्योतिष्क भवनवासी आदि देवोंमें जन्म लेता है। अपने अपने कर्म के अनुसार चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता रहता है । इस जीवके जबतक यह कर्मोंका संबंध लगा रहता है तब तक यह जीव कभी एक