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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृष्णकर यह बतलाइये कि अन्नाती पुरुप यथार्थ वस्तुको भी छोडकर विपरीत पदाथोंको क्यों ग्रहण करता है ? उत्तर - अत्यंत दुष्टेन भवप्रदेन,
मोहेन मत्तो हतधर्मकर्मा। यथार्थवस्तु प्रविहाय मूखों, गृण्हात्यबोधाद्विपरीतवस्तु ॥ २१ ॥ सुरादिपानेन तात्मबुद्धि-, नरो यथा को भगिनीमपोह । सुमन्यते मातरमेव मूढो, भार्या वरां मन्यत एव देवीम् ॥ २२ ॥
अर्थ- इस संसारमें जो पुरुष मद्यपान करता है उसकी बुद्धि मारी जाती है- नष्ट हो जाती है । और फिर वह अत्यन्त मूर्ख पुरुष अपनी बहिनको भी स्त्री समझ लेता है और माताको भी स्त्री समझ लेता है अथवा अन्य किसी देवीको भी स्त्री समझ लेता है । उसी प्रकार जन्म मरणरुप संसारको देनेवाले और अत्यन्त दुष्ट ऐसे मोहले उन्मत्त हुआ यह जीव धर्म कर्मसे सर्वथा रहित हो जाता है । और वह मूर्ख अपने अजानके कारण यथार्य वस्तुओंका तो त्यागकर देता है और विपरीत वा अयथार्थ वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है।)
भावार्थ- तीन मोहके कारण ही यह मनुष्य पदार्थोके यथार्थ स्वरुपको भूल जाता है और उसके विपरीत स्वरुपको मानने लगता है । जिस प्रकार मद्यपान करनेवाला पुरुष माताको स्त्री समझ लेता है वा बहिनको स्त्री मान लेता है। उसी प्रकार मोहके कारण ही यह जीव पर पदार्थोको अपना मान लेता है और अपने आत्माके स्वरुपको भूल जाता है । जब यह जीव इस मोहको छोड देता है तब ही यह जीव अपने आत्माका स्वरूप समझने लगता है और फिर पर पदार्थोको अपना माननेका संकल्प छोड देता है। ऐसा करनेसे वह यथार्थ ज्ञानी कहलाता है और शीघ्र ही आत्माका कल्याण कर लेता है।
प्रश्न -- एकस्थाने सदा ब्रूहि कि न तिष्ठति मानव: ?