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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) उत्तर- मनः प्रियं वस्तु यदेव सुष्ठु सरागिणे स्याद्धि तदेव योग्यम् । सुरोचते प्राणत एव मान्यं, प्रियं भवेन्मोक्षपदार्थतश्च ॥ १९ ॥ तद्वस्त्वयोग्यं भवदे व्यथावं, कि स्थान नहीं रहनामानि । तत्संचयार्थ यतेत ततश्च, तेभ्यश्व देहीह विभो सुबोधम् ॥ २० ॥ - अर्थ-- रागी पुरुषको जो पदार्थ मनको अच्छा लगता है उसी पदार्थको वह प्रोग्य समझता है, उसीको अच्छा समझता है उसीको प्राणोंसे अधिक समझता है और उसीको मोक्ष पदार्थसे भी प्रिय समझता है। वह पदार्थ चाहे अयोग्य ही क्यों न हो, जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाला ही क्यों न हो और महा दुःख देनेवाला ही क्यों न हो तथापि अज्ञानी पुरुष उसके संचयके लिए प्रयल करता रहता है । हे भगवन् ! • आप उनको सम्यग्ज्ञान प्रदान कीजिये । भावार्थ-- जिस प्रकार मद्य पीनेबाला व अफीम खानेवाला पुरुष उस मद्य पीनेमें वा अफीम खानेमें अनेक प्रकारकी हानियां समझता है । उनको खा पीकर दुःखी भी होता है. तथापि उसको छोडता नहीं। इसी प्रकार रागी पुरुष उसीको अच्छा समझता है जो उसके मनको अच्छा लगता है । वह पदार्थ चाहे अयोग्य ही क्यों न हो उससे चाहे जितना दुःख क्यों न मिले तथापि बह उसे प्राणोंसे अधिक मानता है और उसीको संचयके लिये प्रयत्न करता है । यदि यथार्थ ज्ञान हो और यदि वह पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको समझने लगे तो फिर वह दुःख देनेवाले पदार्थों में कभी भी अनुराग न करे । अपने गाढ अज्ञानके ही कारण बह दुःख देनेवाले पदार्थोंको प्रिय और अच्छा मानता है । इसलिए हे भगवन् ! ऐसे अज्ञानी पुरुषोंका अज्ञान दूर कीजिये और उनको आत्मज्ञान दीजिये, जिससे कि वे पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप समझने लगें। प्रश्न- सत्यार्थबस्तु प्रविहाय मूढो, गृहाति किं वा विपरीतवस्तु?
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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