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( धान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- जहां व्याप्य व्यापक संबंध होता है, वहीं कर्ता, कर्म, संघटित होती है। जहां व्याप्य व्यापकभाव नहीं होता, वहां कर्ता, कर्म, क्रिया कभी संघटित नहीं हो सकती । व्याप्य व्यापकभाव निज द्रव्यमें ही होता है । दो द्रव्यों में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव कभी नहीं हो सकता। यही कारण है कि दो द्रव्यों में एक दूसरेके साथ कर्ता, कर्म, क्रिया संघटित नहीं हो सकती। किसी एक ही द्रव्य में व्याप्य व्यापकभाव होता है, और उसी एक द्रव्यमें कर्ता, कर्म, क्रिया, संघटित होती है । इसका भी कारण यह है कि तादात्म्य संबंध किसी एक ही अन्य में होता है, तथा जहां तादात्म्य संबंध होता है, वहीं व्याप्यव्यापकभाव होता है, और जहां व्याप्यव्यापकभाव होता है, वहीं कर्ता, कर्म, क्रिया, हो सकते हैं । अतएव उपरके श्लोकों में कहे अनुसार आत्माके शुद्ध स्वरूपमें ही कर्ता, कर्म, क्रियाका अन्वेषण करना चाहिए और अभद दृष्टिसे शुद्ध आत्माको हो कर्ता कर्मरूप मानकर उसीमें स्थिर हो जाना चाहिए | मोक्षप्राप्तिका यही उपाय है ।
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प्रश्न - तत्त्वत्तः कीदृशोहं को वद में शान्तये प्रभो ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अपनी आत्माको शांति प्राप्त करनेके लिए यह बतलाइये कि वास्तवमें आत्मस्वरूप कैसा है, अथवा में कैसा हूं? उत्तर - बालो न वृद्धस्तरुणी युवा न
वेषी न रागी कृपणो न दानी । स्वामी न भृत्यः सुजनो न पापी वर्णो न वर्णी न पशुर्मनुष्यः ॥ १५४ ॥ व्याधिस्ततो मे जननं न मृत्युः । कुकर्मणो भ्रान्तिकरः सदैव ।
सर्वोपि पर्यायचयोस्ति तत्त्वात् स्वराज्यकर्तास्मि निरंजनोहम् ।।
१५५ ।।
अर्थ - वास्तवमें देखा जाय तो में न तो बालक हूं, न वृद्ध हूं, न तरूण स्त्री हूं, न युवा पुरुष हूं, न किसी वेषको धारण करनेवाला हूं, न रागी हूं, न कृपण हूं, न दानी हूं, न स्वामी हूं, न सेवक हूं, न सज्जन