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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) वास्तवमें देखा जाय तो उस कर्ता कर्म क्रियामें कोई नही होता और न कर्ता, कर्म, क्रियाको कल्पना होती है, वहांपर तो शुद्ध आत्मा है, उसका परिणमन स्वयं शुद्ध भावरूप होता रहता है, और वह भी तद्रूप ही होता है, इसलिए वह शुद्ध आत्मा हो कता है, वहीं शुद्ध आत्मा कर्म है और वही शुद्ध आत्मा क्रियारूप परिणत होता है । इस प्रकार कर्ता, कर्म, क्रिया इन तीनोंमे अभेद सिद्ध होनेसे निर्विकल्प अवस्था माननी पडती है । इस प्रकार समस्त संकल्प-विकल्पसे रहित शुद्ध चतन्य स्वरूप जो आत्मा है, वही कर्ता है, वही कर्म है, और वही क्रिया है, तथा आत्मसिद्धिका वा मोक्ष प्राप्तिका साक्षात् कारण है । इस प्रकार आत्मा द्रव्यमें ही कर्ता, कर्म, क्रिया माननेसे आत्माकी सिद्धि होती है । अन्यथा नहीं। प्रश्न- बद स्वद्रयचिन्हं कि कर्ताकर्माद्यभेदकम् ? अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया तीनोंम अभेद सिद्ध होता हो, ऐसे स्वद्रव्यका चिन्ह क्या है ? उत्तर – व्याप्यव्यापकभावेन विना कर्ताविकारकम् । घटते न परद्रव्ये कचिद्वा घटते यदि ॥ १५२॥ सत्यार्थे स्वपदार्थे हि तादात्म्यवशतः सवा । ज्ञात्वेति प्राप्य वस्तुत्वं स्थातव्यं (?) परमात्मनि।।१५३॥ अर्थ- कर्ता, कर्म, क्रिया, इन तीनोंका सद्भाब वहीं होता है, जहां परस्पर एक दूसरेके साथ व्याप्य-व्यापकभाव होता है 1 व्याप्य-व्यापकभाव एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ नहीं होता, इसलिए व्याप्य-व्यापकभावके बिना कर्ता, कर्म, क्रिया, ये तीनों ही परद्रव्यमें कभी संघटित नहीं हो सकती। यदि कर्ता, कर्म, क्रिया, ये तीनों ही संघटित होते हैं. तो यथार्थ स्वद्रव्यमें ही संघटित होते हैं, क्योंकि स्व द्रव्यमें ही तादात्म्य संबंधसे व्याप्य-ध्यापकभाव बनता है, और कर्ता, कर्म, क्रिया, तीनों ही संघटित हो जाती हैं । इस प्रकार वस्तुका यथार्थ स्वरूप समझकर और उस यथार्थ निज द्रव्यको प्राप्त होकर परमात्मामें स्थिर हो जाना चाहिए ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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