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( शान्तिमुधासिन्धु )
इमीप्रकार मुनि, अजिका, श्रावक, धाविका, आदिके लिए उनकी आवश्यकतानुसार चारों प्रकारका दान देना चाहिए । मुनियोंके लिए पींछी, कमंडल, आहार, औषध, शास्त्र, वसतिका आदिका दान देना चाहिए । अर्जिका वा क्षुल्लिकाओंके लिए बा ऐलक क्षुल्लकके लिए उनकी आवश्यकतानसार ऊपर लिखे पदार्थ भी देने चाहिए । तथा वस्त्रभी देने चाहिए। श्रावक श्राविकाओंके लिए उनकी आवश्यकतानुसार धन, वस्त्र, वर्तन, औषधि आदि जो बन सके वह देना चाहिए। इस प्रकारके दान देनेसेभी आत्माको परम संतोष और शांति प्राप्त होती है । तथा महापुण्यका उपार्जन होता है। इसके सिवाय प्रतिदिन भगवान जिनेंद्रदेवका पूजन करना चाहिए । और बह जल चंदन आदि अष्ट द्रव्योंसेही करना चाहिए । पूजन करनेसेभी आत्मामें परम संतोष और परम शांति प्राप्त होती है । इस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवकी भक्ति करनेसे आत्माको परम शांति प्राप्त होती है, तथा परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति होती है । जो पुरुष इन विधिविधानों को करते हुएभी अपने आत्मामें शांति प्राप्त नहीं करते, उनको या तो अभन्य जीव समझना चाहिए, अथवा अभव्य जीवके समान उसका सब कर्तब्य व्यर्थ समझना चाहिए, वा मिथ्या, वा मायाचारीपूर्ण समझना चाहिए। इसलिए भगवानकी भक्ति विना मायाचारीक, सच्चे हृदयसे होनी चाहिए, तभी आत्मामें शांति प्राप्त हो सकती है।
प्रश्न- सम्मेलं घर्मिणां स्वामिन् किमर्थं चिन्त्यते मिथ: ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अव कृपा कर यह बतलाइए कि धर्मात्मा पुरूषोंका परस्पर सम्मेलन किसलिए किया जाता है, वा किसलिए चितवन किया जाता है। उ.-शान्त्यर्थमेयेह मिथोऽविरुद्धा प्रमाणसिद्धा सकला प्रवृत्तिः सर्वैः समं लोकविधेविधानं सम्मेलनादिः क्रियते यथावत् ।।
अर्थ-- इस संसारम शांतिके लिए परस्पर अविरूद्ध और प्रमाणसिद्ध समस्त प्रवृतियां की जाती है, तथा शालिके लिएही समस्त लौकिकविधियां की जाती है, और शांतिकेही लिए धर्मात्मा पुरूषोंका सम्मेलन आदि किया जाता है ।