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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) दीपका त्याग करते हैं, न छल कपटका त्याग करते हैं, न गुरुपर बा आलोचनापर श्रद्धा रखते हैं, और न गुरुकी भक्ति करते हैं, ऐसी आलोचना करना व्यर्थ है। जिसप्रकार मृतक शरीरपर किया हुआ सुगंधित लेप प्रशंसनीय नहीं गिना जाता । उसी प्रकार दोषसहित की हुई आलोचना प्रशंसनीय नहीं गिनी जाती । अतएव चाहे गृहस्थ व्रती हो, चाहे साधु हो, चाहे त्यागी, ब्रह्मचारी हो, सबको अपने आत्मा में शांति प्राप्त करनेके लिए अपने-अपने दोषोंकी निर्दोष आलोचना करनी चाहिए। कर्मोके भारसे हलका होने का यह विशेष साधन है । पश्न शोकभयमदत्यागात्कस्य लाभो भवेद्वद ? २५६ भय. अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि शोक, जुगुप्सा, मद आदिके त्याग करनेसे किस-किसको लाभ होता है ? उ.- शोकभय स्पृहाद्वेषक्लेशकालुष्यनाशतः । हास्यरतिर तित्यागाज्जुगुप्सामान मोचनात् ॥ ४२८ ॥ सर्वजीये भवेच्छान्तिर्तृत्वेपि मोक्षसौख्यदा । तद्विना भाति न त्यागो यथा वीरः क्षमां विना ।।४२९ ।। अर्थ - शोक, भय, स्पृहा, द्वेष, क्लेश, कलुषता, हास्य, अरति रति, जुगुप्सा, मान आदि समस्त विकारोंका त्याग करनेसे समस्त जीवोंको शांति प्राप्त होती है, तथा मनुष्यपर्याय में मोक्षका अनन्तसुख देनेवाली शांति प्राप्त होती है। जिसप्रकार क्षमा गुणके विना वीर पुरुष शोभायमान नहीं होता, उसीप्रकार शांतिके विना इन सब विका का त्यागभी शोभायमान नहीं होता । भावार्थ - शोक, भय, जुगुप्सा आदि विकारोंके कारण सब जीवोंको दुःख पहुंचता है । इसका कारण यह है कि संसार के समस्त जीव राग-द्वेष आदि विकारोंसे भरपूर हो रहे हैं। यदि किसी एक atani शोक होता है, और उससे बह महादुःखी होता है, तो उसको देख कर बा सुनकर अन्य जीव भी अवश्य दुःखी होते हैं। जो जीव रागद्वेष आदि विकारोंसे रहित होते हैं, उन्हींको दुःख नहीं होता । शेष सब जीवोंको दुःख होता है । यदि इन विकारोंका त्याग कर दिया जाय । और यह मनुष्य सर्वथा निर्विकार हो जाय, तो उस जीवकोभी अपूर्व 1
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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