________________
२९५
(शान्तिसुधासिन्धु )
उ.- स्थाद् यस्य दोषश्च यथा प्रमादात्तथैव भक्त्या सुगुरोः समक्षम् आलोचनादिः क्रियते च भक्तिः मनोवचः कायकृतादिभेदैः श्रद्धान्वितैः कैतवहीन बुद्धचा शान्त्यर्थमेवं सुखदं विधानम् । तद्धीनयोगोपि वृथेति निद्यो निर्जीवदेहस्य सुगंधलेपः ॥
अर्थ - जिस मनुष्यके जिस प्रमादके कारण जैसा दोप लगा हो उसको उसी प्रकार भक्तिपूर्वक गुरुके सामने कहना तथा मन, वचन, काय, और कृतकारित अनुमोदनासे लगे दोषोका गुरुके सामने भक्तिपूर्वक आलोचना करना, आलोचना कहलाती है। यह आलोचना श्रद्धापूर्वक और विना किसी छल-कपटके की जाती है तथा यह सुख देनेवाली विधि केवल आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए की जाती है। जिस आलोचनामें श्रद्धा न हो, वा छल-कपट पूवर्क की गई हो वह, आलोचना व्यर्थ वा निन्दनीय कहलाती है, और जीवरहित मृतक शरीरपर सुगंधित लेपके ममान मानी जाती है ।
भावार्थ- चार विकथा, चार कषाय, पांचों इंद्रियोंके विषय, स्नेह् और निद्रा ये पंद्रह प्रमाद कहलाते हैं । उन्हीको परस्पर गुणा करने से अस्सी भेद हो जाते हैं । इन्हीं प्रमादोंके कारण दोष लगा करते हैं । जिस जीवको जिस प्रसादके कारण दोष लगा हो, वा मनसे, वचनसे, कायसे, कृतकारितअनुमोदना से दोष लगा हो, उस दोषको ज्यों का त्यों गुरुके समीप कहना चाहिए । दोष कहते समय किसी प्रकारका छलकपट नहीं रहना चाहिए। गुरुके ऊपर तथा आलोचना में श्रद्धा होनी आलोचना चाहिए, और गुरुके सामने भक्तिपूर्वक आलोचना करनी चाहिए, करने से मन, वचन, कायकी सरलता प्रगट होती है । मन, वचन, कायकी सरलता प्रगट होनेसे तथा उस दोषके लिए बार-बार पश्चाताप करनेसे और आगामी कालके लिए उस दोषसे सावधान रहने से और गुरुकी आज्ञानुसार उसका प्रायश्चित लेनेसे वह दोष नष्ट हो जाता है । उस दोष के नष्ट होनेसे आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है, और आत्मा में निर्मलता उत्पन्न होनेसे आत्मामें शांति प्रगट होती है। इस प्रकार आलोचनाका फल आत्मामें शांति प्रगट होना है। शास्त्रों में आलोचनाके दश दोष बतलाए हैं । आलोचना करते समय उन दश दोषोंकाभी त्याग कर देना चाहिए। जो लोग आलोचना करते समय, न तो दश