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( शान्तिसुधासिन्धु)
तर न्यूनाधिकाद्वा सकलः पवार्थः,
उन्मादकः स्याद् भुवने कदाचित् । न किंतु दृष्टो विषयस्य तुल्य, उन्मायकश्चैव विकारकारी ॥ ५७ ॥ (यत्सेवनेनैव जनाश्च सर्वे, स्वबोधशून्याश्च सदा हि दीनाः । वाचन्द्रसूर्य च भवन्ति मसा, धिगस्तु को तं विषयं नरं च ॥ ५८ ।।
अर्थ-वास्तबमें देखा जाय तो इस संसारमें कोई भी पदार्थ उन्माद उत्पन्न करनेवाले नहीं है । तथापि कदाचित् किसी कारणसे हीनाधिकरूपसे समस्त पदार्थ उन्माद उत्पन्न करनेवाले हो जाय तो भी विषयोंके समान उन्मत्तता उत्पन्न करनेवाला दुसरा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। क्योंकि इन विषयोंका सेवन करने से जब तक ये सूर्य और चन्द्रमा विद्यमान है तब तक ये संसारी जीव अपने आत्मज्ञानसे रहित हो जाते हैं, दीन हो जाते हैं और उन्मत्त हो जाते हैं । इसलिए इन विषयोंको धिक्कार हो और उन विषयोंको सेवन करनेवाले मनुष्योंको भी धिक्कार हो ।
भावार्थ- भांग, चरस, गांजा, अफीम, मद्य, आसव, अरिष्ट आदि बहुतसे पदार्थ मादक वा उन्मत्तता उत्पन्न करनेवाले हैं परंतु वे सब सशरीर जीवका संबंध होनेपर ही उन्मत्तता उत्पन्न करते हैं अन्यथा दूध पानी आदि अन्य पदार्थों के समान पड़े रहते हैं, पडे पडे वे कुछ नहीं कर सकते । दूसरी बात यह है कि मद्य आदिक पदार्थ भी जो उन्मत्तता उत्पन्न करते हैं वह थोड़ी ही देरके लिए उत्पन्न करते हैं, परंतु विषयोंकी तृष्णाकी समानता वे मद्यादिक पदार्थ कभी नहीं कर सकते। क्योंकि विषयोंकी तृष्णासे जो उन्मत्तता उत्पत्र होती है वह अनंतकाल तक रहती है और इस जीवको नरकादिके महा दुःखोंमें पटक देती है। विषयोंकी तृष्णासे उन्मत्त होकर यह जीव विषयोंका सेवन करता है और उनसे उत्पन्न हुए महापापसे यह जीव नरकादिके दुःख भोगता है । विषयोंके सेवन करनेसे यह विषयोंकी तृष्णा दिन-दिन दुनी बहती है