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( शान्तिसुधासिन्धु )
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तथा इस आत्माको अज्ञानी बनाकर दीन और उन्मत्त बना देती है ।। इसलिए आचार्योंन सदा काल इन विषयोंका तिरस्कार किया है और | अन्य सब जीवोंको इनके छोडने तथा तिरस्कार करनेका उपदेश दिया है।
प्रश्न- शुद्धो निश्चयाज्जीबाऽशुद्धो जातः कथं प्रभो !
अर्थ- हे भगवन् ! यह जीन निश्चयनयसे शुद्ध है फिर भला बह | अशुद्ध कैसे हो गया ? उत्तर - अनावितः स्यात् भुवि,
कर्मबन्धोऽशुद्धश्च हेमोपलवत्सुजीवः स्यात्कितु चानन्दपदाधिकारी, यो यक्रियायोगत एच शुद्धः ।। ५९ ॥ ( काठाद्यथाग्निश्च घृतं हि दुग्धातलं, 'तिलादेव तनोश्चिदात्मा।
ज्ञा वेति सुक्त्वा भवदं प्रमावं, निजात्मशुद्धयं चतुरा यतन्ताम् ॥ ६० )
अर्थ- यद्यपि वास्तव में देखा जाय तो सुवर्ण शुद्ध है परंतु बह् अनादिकालसे सुवर्णपाषाणमें मिला रहने से अशुद्ध हो रहा है । वह सुबर्णपाषाण अग्निके संयोगसे अपने कीट-कालिमाको अलग कर देता है तब शुद्ध सुवर्ण हो जाता है। उसी प्रकार इस संसारमें यह जीव भी अनादिकालसे कर्णे बंधनमें पड़ा हुआ अशुद्ध हो रहा है तथापि तपाचरण ध्यान आदि योग्य क्रियाओंक निमित्तसे यही चिदानन्दमय अनंत सुखको भोगनेवाला शुद्ध हो जाता है जिसप्रकार लकाडीसे अग्नि उत्पन्न होती है. दूधसे घी उत्पन्न होता है और तिलसे तेल उत्पन्न होता है उसी प्रकार चिदानन्दमय शुद्ध आत्मा भी इसी अशुद्ध पर्यायसे सर्वथा भिन्न होकर सदाके लिए शुद्धस्वरूप हो जाता है । यही समझकर चतुर पुरुषोंको जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाले प्रमादका त्याग कर देना चाहिए और अपने आत्माको शुद्ध बनानेके लिए पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।
भावार्थ - सुवर्ण और पाषाण दोनों ही अनादिकालसे मिले हुए हैं । उस सुवर्ण में पाषाण मिला रहनसे बह सुवर्ण अनादिकालसे