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( शान्तिसुधासिन्धु ।
अनंत ही स्त्रियां प्राप्त की, अनंत ही भाई प्राप्त किये, अनंतही माताएं हई अनंत ही पिता हुए अनंत ही मित्र बनाये, अनंत ही बहिनें हुई और अनंत ही कुटुंबी मिले। इसके सिवाय अनंतबार देवोंकी विभूति प्राप्त की, अनंत बार राज्य वा साम्राज्य प्राप्त किये, अनंतानंत विशाल भवन बनवाये, और अनंतानंतबार ही संसारके समस्त पदार्थ प्राप्त किये । अब तक इन समस्त बाह्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि करता रहा, और इन सबको अपना मानता रहा, और उनको देख-देख कर प्रसन्न होता रहा, लथा इसी प्रकार अनंतबारही इन सबका वियोग सहन किया, अनंतबार ही उनके लिए आंसू बहाये, और अनंतबार ही उनके लिये न जाने कैसे-कैसे दुःख महे । यदि इस अनंतानंत काल में एक बार भी अपने आत्माके निर्मल स्वभावको ग्रहण कर लेता, तो अवश्य ही इस संसारके विषम बंधनोंसे छूट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता, और सदाके लिये अनंत सुखी हो जाता। इससे सिद्ध होता है कि आत्म स्वभावका चितवन करना और उसको प्राप्त करना प्रत्येक भव्य जीवोंका कर्त्तव्य है। यही मोक्षका कारण है।
प्रश्न – स्वार्थी यथार्थो क्द कोस्ति लोके ?
अर्थ – हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में बास्तविक रीतिसे स्वार्थी कौन है ? उत्तर - स्वर्मोक्षमार्गादिविनाशकं हि
चित्ताक्षवेगं च कषायकाण्डम् । निरुध्य मायामलिनस्वभावं त्यक्त्वा ध्यादं च कुटुम्बमोहम् ॥ १६० ।। क्षमाकृपाशान्तिदयादिहेतोः स्थानन्दसाम्राज्यपदप्रसिद्ध । यः कोपि जीवो यतते सदैव स्वार्थी यथार्थोस्ति स एव लोके ॥ १६१ ॥
अर्थ - जो महापुरुष स्वर्ग और मोक्षके मार्गको नाश करनेवाले इंद्रिय और मनके वेगको रोक लेता है, समस्त कषायोंके सम्हको रोक लेता है, मायाचारीसे उत्पन्न होनेवाले मलिन स्वभावको रोक लेता है