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( शान्तिसुधासिन्धु )
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को हेय समझता है, और आत्माके शुद्ध परिणामोंको उपादेय वा ग्रहण करने योग्य समझता है । इस प्रकार हेय-उपादेयका ज्ञान होनेपर यह जीव आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रगट करनेका प्रयत्न करता है। और धीरे-धीरे चारित्रको धारण कर, दान व तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्माको नष्ट कर आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हो जाता है । इसलिए भव्य जीवोंको सदाकाल आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते रहना चाहिए । तथा परपदार्थोका त्याग कर आत्मस्वरूपमें लीन होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । यही मनुष्य जन्मकी सफलता है।
प्रश्न- भो परग्रहणत्यागः कतिवारं कृतं मया ?
अर्थ-- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिये कि इन परपदार्थोका ग्रहण और त्याग इस जीवने कितनी बार किया है ? उत्तर - प्रियोपि पुत्रः सुखदश्च बंधुः,
श्रेष्ठापि भार्या च सखा दयाः । मातापि मान्या चतुरः पितापि, स्वप्ता सुशीला प्रियबांधवोपि, ॥ १५८ ॥ त्यक्तो गृहीतो बहुबारमेव, निजात्मबाह्यः सकलः पदार्थः । किन्तु स्वभावो विमलो न
यस्याज्जातोस्मि दोनो भवदुःखपात्रम् ॥ १५९ ।।
अर्थ- प्रिय पुत्र, सुख देनेवाला भाई, श्रेष्ठ स्त्री, चतुर पिता, माननीया माता, दयाल मित्र, सुशील बहिन और प्यारे कुटंबी लोग तथा इसी प्रकारके आत्मासे भिन्न रहनेवाले संसारके समस्त पदार्थ अनेक बार ग्रहण किये हैं, और अनेक बार इनका त्याग किया है । परंतु अपने आत्माका निर्मल स्वभाव आज तक ग्रहण नहीं किया है। इसीलिए अबतक दीन और संसारके समस्त दुःखोंका पात्र बना है।
भावार्थ - इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनंतानंत काल व्यतीत हो गया है । इस अनंतानंत कालमें अनंतही पुत्र प्राप्त किये