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(शान्ति सुधासिन्धु )
अपने आत्मा शुद्ध पदको कौन प्राप्त कर लेता है, बा कौन तलाश कर लेता है ।
उत्तर
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अज्ञानतश्चान्यपदेऽतिनिद्ये, दुःखप्रदे व वसता मया हि । अनन्तकालो गमितो भवान्धौ,
दुःखंच भोक्त्रा कुकृति प्रकर्त्रा ।। १५६ ॥
अद्यापि चानन्दपदं न लब्धं,
हा कर्मचोरेण हतः प्रगष्टः । एवं विचारः क्रियते च येन, ह्यन्विष्यते स्वात्मपदं च तेन ॥
१५७ ॥
अर्थ - इस संसाररूपी महासागरमें मैं अपनी अज्ञानता के कारण अत्यंत दुःख देनेवाले और महा निद्य ऐसे नरक निगोद आदि अन्य स्थानों में ही निवास करता रहा। वहांपर रहते हुए मैंने अनंतकाल व्यतीत कर दिया, और वहीं पर अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहा, और अनेक प्रकारके कुकर्म करता रहा, तथा इसीलिए मैंने आज तक अपने आत्मजन्य आनन्दको प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार इन कर्मरूपी चोरोंने मेरा सब कुछ छीन लिया, और मुझे सब प्रकारसे नष्ट कर दिया । जो महापुरुष सदाकाल इस प्रकार के विचार करता रहता है, वह पुरुष अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको अवश्य तलाश कर लेता है ।
भावार्थ - अज्ञान वा आत्मज्ञानके बिना यह जीव संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण करता रहता है, और अनंत दुःख भोगता रहता है । अनादिकालसे लेकर आज तक इस जीवको आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ । वह आत्मज्ञान सम्यग्दर्शनरूपी आत्मजन्य अमूर्त प्रकाशके प्रगट होनेपर होता है । जिस समय यह आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है उसी समय स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, स्वपरभेदविज्ञान प्रगट होनेसे यह आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप निज स्वभावको ग्रहण करने लगता है और रागद्वेषादिक परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देता है। तथा ममत्वका सर्वथा त्याग कर देता है उस समय यह जीव कर्मजन्य समस्त विकारों
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