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( शान्तिसुधासिन्नु )
__ अर्थ- यह आत्मा जब कभी किसी भी स्थानपर, जिस किसी पदार्थका चितवन करता है, तब वह उस समय स्वभावसेही उस पदार्थरूप हो जाता है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको भवित-पूर्वक समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला साधुओंका समागम करना चाहिए. जिसमे यह आत्मा परपदाथों के मोहको छोडकर अपनहीं आत्मा में लीन हो जाय ।
भावार्थ-- इस आत्माका स्वभाव वा इसकी गतिही ऐसी है कि यह आत्मा जब जिस पदार्थ का चितवन करता है, तब वह अपने आत्माको उसीरूप मान लेता है। जो आत्मा आग्नेयी धारणाका चितवन करता है। उस अग्निकी ज्वालासे अष्टकर्मोको जलता हुआ चितवन करता है। फिर वायवीय धारणाका चितबन करता हुआ वायुके द्वारा उस भस्मको उडानेका चितवन करता है 1 तदनंतर जलीय धारणा चितवन करता हुआ उस जलकी वर्षांके द्वारा अपने आत्माको शांत होना चितवन करता है । तदनंतर कर्मोंके जल जानेसे अपने आत्माको शुद्ध होना चितवन करता है । इस प्रकार वह चितवन करता हुआ अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है, कि अपने शुद्ध आत्माके ध्यानका अभ्यास करनेके लिए साधुवोंके निवासस्थानमें रहना चाहिए। वही रहकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । साधुओंके निवासस्थानमें रहनेसे अन्य समस्त पदार्थोके मोहका न्याग हो जाता है, तथा यह आत्मा ध्यानका अभ्यास करने लगता है, और अनुक्रममे शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ अपने आत्माको शुद्ध बनाकर मोक्षका अनंतसुख प्राप्त कर लेता है ।
प्रश्न- इष्टानिष्टपदार्थः को कस्य स्याद् दुःखदो वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें इष्ट और अनिष्ट पदार्थोका संयोग किसको दुःस्त्र देनेवाला होता है ? उत्तर - स्यादिष्टानिष्टसंयोगोऽन्यहेतुः कोपि वैविकः ।
दुःखदो मूर्खजन्तूनां कामान्धानां भवात्मनाम् ।। २२२॥ मुनीनां श्रावकाणां वा तथाहवर्मधारिणाम् । स्वानन्दसौख्यभाजां न स्वपरतत्त्ववेविनाम् ॥२२३॥