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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- इन संसारी जीवों को जो इष्ट और अनिष्ट पदार्थोका संयोग हुआ करता है, वा इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग हुआ करता है, वह अपने-अपने कर्मोके उदयसे हुआ करता है, तथा आत्सज्ञानमे शुन्य ऐसे अज्ञानी और कामसे अंधे होनेवाले संसारी जीवोंकोही दुःख देनेवाला होता है। परंतु जो पुरुष भगवान अरहंत देवके कहे हए धर्मको धारण करते हैं। जो अपने आत्माके यथार्य स्वरूपको तथा परपदार्थोके स्वरूपको जानते हैं, और जो अपने आत्मजन्य अनंतसुनका अनुभव करते रहते हैं, ऐसे मुनि वा उत्तम श्रावकोंको व इष्टवियोग वा अनिष्टसंयोगसे होनेवाला दु:ख कमी नहीं होता है ।
भावार्थ – इस संसारमें इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग दोनाही अपने अशुभ कर्मके उदयसे होते हैं, तथा काँका उदय अनिवार्य हुआ करता है। उन कर्मोके उदयको इन्द्रादिक देव भी नहीं रोक सकत । इसलिए उसमें दुःख मानना अज्ञानी लोगोंका काम है । अज्ञानी जीव न तो आत्माके स्वरूपको समझते हैं और न कोके उदयको समझते हैं, इसलिए वे किसीभी इष्टकेवियोग होनेपर अथवा किसी अनिष्टके संयोग होनेपर दुःखी हुआ करते है । यह उनके प्रबल मोहका माहात्म्य है । जो मनुष्य अपने मोहका त्याग कर देता है, वह अपने आत्माकही स्वरूपको समझने लगता है, और इसलिए वह आत्माके सिवाय अन्य समस्त पदार्थोंको पर समझता है। यही कारण है, कि वह किसीभी इष्टके वियोग होनेपर दुःख नहीं करता। वह तो अपने आत्माकोही अपना समझता है, इसलिए वह किसीभी पदार्थोमें इष्ट वा अनिष्टकोही कल्पना नहीं करता। जब वह किसीभी पदार्थ में इष्ट वा अनिष्टकी कल्पना नहीं करता तब वह उनके संयोग वा वियोगकोभी समान समझता है । तथा इस प्रकार समताभाव धारण करनेके कारण वह कभी दु:खी नहीं होता। यही समझ कर भव्यजीवोंको सबसे पहले मोहका त्याग कर देना चाहिए। सम्यग्दर्शनकी धारणकर आत्माका स्वरूप समझ लेना चाहिए और फिर समताभाव धारण कर आत्मजन्य सुखका अनुभव करते रहना चाहिए। ऐसा करनेसे इस जीवको कभी दुःख नहीं होता।
प्रश्न – स्ववस्तुग्रहणे स्याद्वाऽन्यवस्तुग्रहणे मुखम् ?