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________________ १८४ ( शान्तिसुधासिन्धु ) भावार्थ- ज्यों ज्यों विषय सेवन किए जाते है, त्यो त्यो उनकी तृष्णा बढ़ती ही जाती है। यदि उनसे अपना मन हटा लिया, वा उनका त्याग कर दिया जाय तो वह तृष्णा घट जाती है, बा नष्ट हो जाती है । इसलिए मनुष्योंको अपनी इस धारणाका त्याग कर देना चाहिए की हम लोग और थोडे दिन गृहस्थीमें रहले, फिर इनका त्यागकर आत्माका हित कर लेंगे, क्योंकी थोडे दिन और रहले, थोडे दिन और ठहर जाय, यही विचार करते-करते दिन पूरे हो जाते हैं, और यह जीव मृत्युके मुखम पड़कर परिभ्रमणमें लग जाता है। इसलिए इन विषयोंका त्याग पहलेसे ही कर देना चाहिए । पहलेसे त्याग करदेनेसे इनकी प्रबलता नहीं बढ सकती। इस प्रकार धन कमाते-कमाते लोभकी वृद्धि होती रहती है । वह लोभकी वृद्धि न हो उसके पहलेही आत्माके हित में लग जाना चाहिए । आत्माका हित करने के लिए वा व्रत उपवास करनेके लिए शरीरका बलशाली होना. और नीरोग होना अत्यावश्यक हैं । निर्बल शरीरसे प्रत उपवास करना कठिन हो जाता है। इसलिए जबतक शरीर नीरोगी और बलवान रहता है, तबतकही इस जीवको अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए । वृद्धावस्था आनेपर फिर शरीर निबंल हो जाता है, और वृद्धावस्थामें अनेक रोग आकर घेर लेते हैं। इसलिए वृद्धावस्थाके पहलेही अपने आत्माका हित करना अत्यावश्यक है । इस संसारमें इस जीवकी आयु कब पूर्ण होती है, वा मरण कब होता है, यह किसीको मालुम नहीं होता । यह शरीर अत्यंत क्षण-भंगुर है | बेठे-बैठे, चलतेचलते, वा खडे-खडे, चाहे जब यह शरीर नष्ट हो जाता है, और मरण हो जाता है, वा आयु पूर्ण हो जाती है, यह समझकर मृत्यु होने के पहलेही अपने आत्माका कल्याण कर लेना श्रेयस्कर है । विषयोंकी तीव्रता होनेपर वा वृद्धावस्था प्राप्त होनेपर फिर यह जीव अपने आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकता । प्रश्न- मूर्तिः पूज्या कियत्कालं गुरो धात्वादिनिर्मिता ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि धातु वा पाषाण की बनी हुई भगवान जिनेंद्रदेवकी प्रतिमा इस जीवको कब तक पूजनी चाहिए ?
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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