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________________ ( शान्तिमुधासिन्धु) पात्रदान वा जिनपूजा आदि कार्योमें उद्यम नहीं करते, उनके समान इस संसारमें अन्य कोई मूर्ख नही हो सकता । मनुष्यजन्मका फल धन, दान. पूजा आदिकद्वारा पुण्य उपार्जन करना है । जो पुरुष मनुष्यजन्म पा कर तथा श्रेष्ठ कूल, निरोग देह आदि पा करभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर. लेता, बा चारित्र धारण कर महापुण्य उपार्जन नहीं कर लेता, वह धनी होकरभी आगेके जन्मके लिए निर्धनही बना रहता है। इस प्रकार मनप्य जन्म पा कर स्वर्ग मोक्षके साधनभत प्रत उपवास करना, वा ब्रह्मचर्य धारण करना, चारित्र पालन करना सज्जनता है । जो पुरुष ऐसा नही करता जाता वह कभी सज्जन नहीं कहा । फीर तो उसे दुष्टही कहना चाहिए । इस लिए हे भव्य ! तू आलसको सर्वथा छोड, और सम्यक्चारित्र धारण कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए सदाकाल उद्यम करता रह। यही मनुष्य जन्मका सार है, और यही आत्मकल्याणका मार्ग है। प्रश्न- स्वात्महितः कदा कार्यः स्वामिन् मे वद साम्प्रतम् ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस जीवको अपने आस्माका हित कब कर लेना चाहिए ? उ. कामाग्निकोपः प्रबलो न यावत् पापी प्रलोभो हुदि न प्रविष्टः देहोस्ति यावत्सुदृढो निरोगी मृत्युस्तथा दूरतरोस्ति दुष्टः । तावत्प्रकुर्युः स्वहितं प्रयत्नात पूर्वोक्तदुष्टाः प्रबलाश्च न स्युः पश्चात शक्ताः किमपि स्वकृत्यं कर्तुं भवन्त्येव कदापि केपि ॥ अर्थ- जब तक यह कामदेवरूपी अग्नि और क्रोधरूपी कषायप्रबळ नहीं होता, जब तक यह तीव्र और महापापी लोभ हृदयमें प्रवेश नहीं करता, जब तक यह शरीर बलवान और निरोगी रहता है, तथा जब तक यह दुष्ट मृत्यु अत्यंत दूर बना रहता है, इस प्रकार ये ऊपर कहे हुए दुष्ट जब तक प्रबल नहीं होते, तब तकही इस जीवको प्रयत्न पूर्वक अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए। जब ये दुष्ट कामक्रोधादिक प्रबल हो जाते हैं, वा शरीर जर्जरित हो जाता है. अथवा मृत्यु समीप आ जाता है, तब इस संसारमें कोईभी जीव अपना आत्मकल्याण करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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