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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) मोहमें लगा रहता है, वह पुरुष अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता हुआ अवश्यही नरक निगोदके महादुःख सहन किया करता है, इसलिए मध्यजीवोको देव - शास्त्र - गुरुमेंही अनुराग रखकर उनकी सेवा - भक्ति करते रहना चाहिए, यह आत्मकल्याणका सरल उपाय है। प्रश्न- योस्ति सत्कर्मकार्ये भो निरुद्यमी स कीदृश: ? १८२ अर्थ -- हे भगवन ! अब कृपाकर यह बतलाईये की जो पुरुष श्रेष्ठ कार्य करनेमें निरुद्यमी होता है, वह कैसा गिना जाता है ? उ. निरुद्यमी स्यानरजन्म लब्ध्वा सत्कर्मकार्ये सुखदे सदा यः । स एव पापी चतुरोपि मूर्खः श्रीमान् दरिद्रः सुजनोपि दुष्टः ॥ सिद्धयं । ज्ञात्वेति भथ्यो ह्यलसं विहाय सत्कर्मकार्ये च भवोद्यमीत्वम् ॥ अर्थ -- जो पुरुष मनुष्य जन्म पाकरकेभी सुख देनेवाले श्रेष्ठ कार्य के करने में सदाकाल निरुद्यमी रहता है, उसे पापीही समझना चाहिए। वह पुरुष चतुर होकर भी मूर्ख माना जाता है, धनी होकरभी दरिद्री माना जाता है, और सज्जन होकर भी दुष्ट कहा जाता है। यह समझकर, हे भव्य ! तु प्रमादरूपी समुद्रको उल्लंघन करनेके लिए अपने आलसका त्याग कर, दान, पूजा, व्रत, उपवास आदि श्रेष्ठ कार्य करने में सदा उद्यमी बन 1 भावार्थ - यह जीव इस संसार में अनादिकालसे परिभ्रमण करता चला आ रहा है, और चारों गतियोंके महादु:ख भोगता आ रहा है। इन चारों गतियों के परिभ्रमणमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना अत्यंत कठिन हैं, । यदि यह मनुष्यजन्म प्राप्त होकरभी व्यर्थ चला जाता है, तो फिर दूसरी बार उसका प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ हो जाता है। तथा यह भी निश्चित सिद्धांत है कि इस संसारमें मोक्ष प्राप्त करनेके जितने श्रेष्ठ साधन हैं, और पुण्य प्राप्त करनेके जितने श्रेष्ठ कार्य हैं, वे सब इस मनुष्यपर्याय में ही हो सकते हैं दूसरी कोई ऐसी पर्याय नहीं है जिसमें मोक्ष और पुण्यके पूर्ण साधन बन सकें। इसलिए मनुष्य जन्मको पा करके व्रत, उपवास वा दान, पूजा आदि श्रेष्ठ कार्यों में कभी आलस नहीं करना चाहिए, जो पुरुष अत्यंत दुर्लभ ऐसे मनुष्य जन्मको पा कर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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