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( सान्निमुधासिन्ध)
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उ. भ्रान्तिप्रवे क्लेशकरे व्यथावे, गृहप्रपंचे विषयेऽपि यावत् । हर्षो विषावः क्रियते रचियस्तैरेव तत्पापविनाशनार्थम् ।। तायत्प्रपूज्या प्रतिमा प्रयत्नात् सदैव वन्द्या हृदि चिन्तनीया। यातीर्थयात्रा यजनप्रतिष्ठा, कार्या सवा वांच्छित्तदा स्तुतिश्च
गृहप्रपंचो विषयो यदा येवुःखपदस्त्यज्यत एव मोहः । स्वात्मैव तत्त्वात्प्रतिमास्ति पूज्या बन्यानिमान्यापि तवे ति नात्या।
अर्थ-इस संसारमें महा भ्रान्ति उत्पन्न करनेवाले, महाक्लेश उत्पन्न करनेवाले, और घोर दुःख देनेवाले घरके प्रांच में जब तक यह जीव हर्ष-विषाद करता रहता है. वा उनमें रुचि करता है, अथवा इन्द्रियोमे जब तक हर्ष-विषाद करता रहता है, वा रुचि करता रहता है, तब-तक उस गृहस्थिके प्रपंचोंसे उत्पन्न होनेवाले पापोंका नाश करने के लिए प्रतिमाका पूजन प्रयत्न पूर्वक करते रहना चाहिए । तथा सदाकाल उनकी बन्दना करनी चाहिए, और अपने हृदयमें चितवन करते रहना चाहिए, अथवा तीर्थयात्रा करते रहना चाहिए वा पूजा प्रतिष्ठा करते रहना चाहिए अथवा सदाकाल इच्छानुसार फल देनेवाले भगवान जिनेंद्रदेवकी स्तुती करने रहना चाहिए । परंतु जब यह जीव महादुःख देनेवाले घरके प्रपंचोंका त्याग करेगा, अथवा इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करेगा, और मोहका सर्वथा त्याग करेगा, उस समय उसका शुद्ध आत्माही प्रतिमाके समान पुज्य, बन्दनीय और अत्यंत मान्य माना जाता है । उस समय धातु, पाषाणकी प्रतिमाकी आवश्यकता नहीं रहती है ।
भावार्थ- धर्मके दो भेद हैं, एक गृहस्थधम और दूसरा मुनिश्रम । मुनिधर्म मोक्षका साक्षात् साधन है, और गृहस्थधर्म मोक्षकी परंपरा साधन है । गृहस्थधर्ममें जीविकाके साधनोंमें भी हिंसादिक पाप लगते रहते हैं । और चक्की, उखली, चूलि, बुहारी, आदिसे महापाप उत्पन्न होते रहते हैं। उन समस्त पापोंको नाश करनेके लिए भगवान जिनेंद्रदेवने देव पूजा, गुरूपास्ति, पात्रदान आदि गृहस्थोंका धर्म बतलाया है। गृहस्थ धर्म के जितने साधन है, उन सबमें देवपूजा मुख्य बतलाई है । देव पूजाभी दो प्रकारकी है, एक प्रत्यक्ष पूजा और दुसरी परोक्ष पूजा। समवशरणमें विराजमान भगवान अरहंत देवकी पूजा करना प्रत्यक्ष पूजा