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________________ शान्तिसुरेश १४९ करता जाता है । और आत्माकी शुद्धता प्राप्तकर समस्त कर्मोको नष्ट करनेका प्रयत्न करता रहता है । इस प्रकार वह समस्त कर्मोको नष्टकर अनन्तसुखी हो जाता है । प्रश्न- परैः को निद्यते जीवः साम्प्रतं मे गुरो वद ? अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कंगा जीत्र दूसरों के द्वारा निंदनीय माना जाता है। उत्तर - योऽन्याभिलाषी विपरीतवेषी, स निद्यते सर्वजनःप्रमहः । तथासदैवं नरके निगोदे, पीडामसह्यां सहतेऽन्यदताम्ज्ञात्वेति भयो न भवेत्कदापि, पराभिलाषी विपरीतवेषी। विश्वं स्ववडीव च मन्यमानः, श्रीकुंथुसिंधुविदच्च सूरिः। अर्थ- इस संसारमें जो पुरुष परपदार्थोकी अभिलाषा करता है। और विपरीत भेषको धारण करता है, वह मूर्ख सब लोगोंके द्वारा निंदनीय माना जाता है । ऐसा मनुष्य सदाकाल नरक-निगोदमें पड़ा रहता है । और दूसरोंके द्वारा दिये हुए अमय दुःखोंको सहन किया करता है । यही समझकर भव्यजीवोंको परपदार्थोकी अभिलाषा कभी नहीं करनी चाहिए और कभी विपरीत वेष धारण नहीं करना चाहिए भन्यजीवोंको तो समस्त संसारके प्राणी मात्रको अपनी आत्माके समान समझना चाहिए। ऐसा आचार्यदर्य श्री कुंथुसागरने निरूपण किया है। भावार्थ-तीय मोह वा तीव्र लोभको धारण करनेवाला मनुष्य सदाकाल संसारके समस्त पदार्थोकी अभिलाषा किया करता है, यद्यपि उन पदार्थाका प्राप्त होना उनके आधीन नहीं है । पदार्थोका प्राप्त होना लाभान्तराय कर्मके क्षयोपशमके आधीन है । जबतक लाभन्तराय कर्मका क्षयोपशम नहीं होता तबतक किसी भी पदार्थकी प्राप्ति नहीं होती। अतएव अभिलाषा करनेवाला मनष्य व्यर्थही अशुभ कर्माका बंध किया करता है । स्वयंभरमण समुद्र में एक सबसे बडा मत्स्य होता है, और उसकी आंख में एक तंदुल मत्स्य नामका छोटासा मत्स्य रहता है। जब वह बड़ा मत्स्य मुंह खोलता है, तब हजारों छोटे-छोटे मत्स्य
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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