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( शान्तिसुधा सिन्धु )
भावार्थ- वीतराग निर्ग्रन्थ गुरु यद्यपि किसीसे कोई किसी प्रकारका संबंध नहीं रखते, सबसे समानभाव धारण करते हैं । तथापि वे अपनेको सर्वत्र समान समझते हैं, न तो उन्हें कहीं किसी शत्रुसे डर लगता है और न किसी भहसे किसीभी प्रकारको इच्छा रखते हैं । साधु तो जहां पहुंच जाते हैं, वहीं अपने आत्माका चितवन करने लगते हैं, वे साधु सिवाय अपने आत्माके और किसीसे कोई संबंध नहीं रखते। इसलिए वे गांव में वा नगरमें, अथवा जनमें सर्वत्र समता धारण करते हुए बिहार करते हैं । इस प्रकार नीति और न्यायमें तत्पर रहनेवाले राजाका कोई शत्रु नहीं होता, वह चाहे जहां आ-जा सकता है। क्षमा धारण करनेबाला विद्वान भी सर्वत्र आदरणीय होता है। इसलिए उसके आने-जानेका स्थान सर्वत्र समान रहता है। इस प्रकार दानी-धनी काभी सर्वत्र आदर होता है। दान देनेवालेको सब लोग मानते हैं । इसलिए बहुभी सर्वत्र समानरूपसे गमनागमन करता है। पतिव्रता स्त्रीका महत्व सर्वत्र विदित है, वह सर्वत्र महत्वशालिनी मानी जाती हैं। इसलिए वहभी सर्वत्र समानरूपसे आ-जा सकती है। इस प्रकार इच्छा और कषायविषयोंसें रहित सत्यवादी पुरुष सर्वत्र पूज्य माना जाता है, इसलिए किसीसे संबंध न रखनेपर भी प्रत्येक मनुष्य उनका आदर-सत्कार करता है, इसलिए बहमी सर्वत्र समानरूपसे विहार कर सकता है। अभिप्राय यह है कि, साधु, राजा, विद्वान, धनी, स्त्री आदि जितने पदस्थ मनुष्य है, यदि वे अपने कर्तव्यपालन करने में कभी नहीं चूकते हैं, तो फिर समस्त संसार उनका आदर करता है। उनका किसीकेसाथ संबंध होनेपरभी सब लोग उनकी पूजा प्रतिष्ठा करते हैं, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपना कर्तव्य पालन करनेमें कभी नहीं चूकना चाहिए ।
प्रश्न - विज्ञानादिसमा विद्यात्रान्यास्ति मे न वा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में विज्ञान आदिके समान अन्य विद्याएं है वा नहीं ?
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उ.- क्षमासमं नास्ति तपोऽपरं च दयासमो नास्त्यपरो हि धर्मः । चिता समो नास्त्यपरच रोगो रसोऽपरो न स्वरसस्य तुल्यः ॥ सुखं न सम्यक्त्वसमं त्रिलोके विज्ञानतुल्या परा न विद्या । चारित्र तुल्येत्यपरा न शान्तिर्ज्ञात्वा तदर्थं सततं यतन्ताम् ।।