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( शान्तिसुधासिन्धु )
बढानी चाहिए । यह मनुष्यका कर्तव्य है, और यह स्वर्ग मोक्षका कारण है। इतिश्री आचार्यवर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथे वस्तुस्वरूपवर्णनो नाम तृतीयोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्य श्रीकृथसागरविरचित श्रीशांतिसुधासिंधु नामके महाग्रंथकी 'धर्मरत्न' पं लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें वस्तु स्वरूपको वर्णन करनेवाला यह तीसरा अध्याय समाप्त हुआ।
चौथा अध्याय। हेयोपादेय स्वरूपका वर्णन
प्रश्न- क: स्वं सर्वत्र मन्यते ?
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौनसा मनुष्य अपने आपको सर्वत्र समझता है ? उत्तर - स्वानन्दतुष्टसाधुश्च नीतिनिष्ठः प्रजापतिः ।
तथा विद्वान क्षमाधारी श्रीमान् दाता रमा सती । ३०१ सत्यवादी स्पृहात्यागी कषायविषयोज्झितः।
यः स्वसम्बन्धहीनोपि स स्वं सर्वत्र मन्यते ॥ ३०२ ॥
अर्थ- अपने आत्मजन्य आनंदमें संतुष्ट रहनेवाले साधु यद्यपि किसीसे किसी प्रकारका संबंध नहीं रखते, तथापि वे अपनेको सर्वत्र समान समझते है। इस प्रकार न्याय और नीतिमें तत्पर रहनेवाला राजा, क्षमा धारण करनेवाला विद्वान, दान देनेवाला धनी, पतित्रता स्त्री, और कषाय विषयोंसे सर्वथा रहित तथा इच्छाओंसे सर्वथा रहित, सत्य भाषण करनेवाला महापुरुष, ये लोग किसीसे कुछ संबंध न रखने पर भी अपनेको सर्वत्र समान समझते हैं।