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( शान्तिमुधासिन्ध }
पा करके शांत रहता है, सौम्यता धारण करता है, वह लक्ष्मीका सदुपयोग कर लेता है । फिर वह लक्ष्मीको श्रेष्ठ पुण्यकार्यों मेंही लगाता है । इसलिए लक्ष्मीकी शोभा सौम्यता धारण करनेसेही होती है। इस प्रकार सुखकी शोभा पुण्यकर्म करनेसेही होती है। सुखकी प्राप्ति पुण्यकर्मके उदयसे होती है । उस सुखकी प्राप्ति होकरभी जो आगेके लिए पुण्यकार्य नहीं करता, उसका वह सुख चिरकाल तक नहीं रह सकता, इसलिए सुखी जीवोंको सदाकाल सुखी रहने के लिए जिनपूजन, पात्रदान आदि पुण्यकार्य करते रहना चाहिए, इसमें सुखकी शोभा है । राज्यकी शोभा न्याय और नीतिके पालन करनेसे होती है। जो राजा न्याय और नीतिका पालन नहीं करता, उसका वह राज्य अवश्य नष्ट हो जाता है | अन्याय और अनीतिका आश्रय लेनेसे प्रजा दुःखी हो जाती है, तथा दुःखी होकर वह या तो राजाको राज सिंहासन मे उतार देती है, अथवा अन्य किसी प्रबल राजासे मिलकर उस राज्यको उसके आधीन करा देती है, इसलिए आचार्य महाराजने राज्यकी शोभा नीति और न्यायकेही अश्रित बतलाई है । हाथकी शोभा दान देनेमें है । दान देने से हाथ पवित्र हो जाते हैं, तथा हजारों प्राणी उन पवित्र हाथोंके दर्शन करने के लिए सदाकाल लालायित रहते है । जो लोग कई। कंकणोसे हाथोंकी शोभा मानते हैं, वे भूलते हैं, क्योंकि अनेक चोर, लुटेरे उन कडे वा कंकणोंके ग्राहक हो जाते हैं, और वे उस पहननेवालेको मारकर भी लेनेकी इच्छा कर लेते है, इसलिए हाथकी गोभा कडे कंकणोंसे नहीं है, किंतु दानसे है । जो लोग उस हाथसे दान लेते है, वे मनुष्य वा जीव उस हाथको सदाकाल सुखी देखनेकी इच्छा करते हैं। इस प्रकार कंठकी शोभा सत्य भाषण करनेमें होती है । सत्य भाषण करनेवाला मनुष्य सबके द्वारा विश्वसनीय और प्रशंसनीय गिना जाता है । असत्य भाषण करनेवाले मनुष्यका कोई विश्वास नहीं करता, वह निदनीय गिना जाता है, और परलोकमे भी दुःख पाता है, इसलिए कंलकी शोभा, सत्यभाषणसे है । हार आदि आभरणोंमे कंठकी शोभा नहीं होती । इसप्रकार शरीरकी शोभा व्रत उपवास वा तपश्चरण करनेसे होती है । वस्त्राभूषणोंसे नहीं व्रत उपवास वा तपश्चरण करने से शरीर पूज्य और देदीप्यमान हो जाता है। अतएव भव्यजीवोंको क्षमा, शील, दान आदि गुणोंके द्वारा अपनी विद्या, कुल वा धनकी शोभा
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