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( शान्तिसुधासिन्धु )
म्वरूपमें अनुराग करने लगता है, और उस आत्माके यथार्थ शुद्ध स्वरूपको प्रगट करनेके लिए प्रयत्न करता है । जब यह जीव ध्यान वा तपश्चरणकेद्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, सब यह आत्मा अत्यंत निर्मल, निर्विकार और अत्यंत शुद्ध हो जाता हैं, इमीको मोक्षकी प्राप्ति कहते हैं इससे सिद्ध होता है कि रागद्वषादिक विकार तो आत्मामें होते है परंतु विकार होने में कुटुंबी लोग बा संसारके अन्य पदार्थ निमित्तकारण हैं। उन पदार्थोंके होनेसे ही यह जीव उनमें रागद्वेष करने लगता है। यदि पदार्थ न हों तो रागद्वेष भी उत्पन्न न हों । यदि कोई शत्रु सामने आ जाता है, हृदयमें द्वेष उत्पन्न होने लगता है, यदि शत्रु सामने न आवे तो वह द्वष उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार स्त्री-पूत्र आदिके मिलनेपर विशेष राग उत्पन्न होता है। इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। कि रागद्वेषादिक विकारोंके उत्पन्न होने में परपदार्थ ही निमित्तकारण है।
प्रश्न – त्यागोस्ति सुलभः कस्य दुर्लभो वद मेऽधना ?
अर्थ - हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइये कि किन किन पदार्थोका त्याग सरल रीतिसे हो जाता है और किन किनका त्याग अत्यन्त दुर्लभ होता है ? उत्तर – सुगन्धतैलेन विलेपनादेवस्त्राधलंकारविभूषणादेः ।
त्यागो धनादेर्वनितागृहादेरनौषधादेः सुलभोस्तिलोके न किन्तु मोहादिकषायवन्हेरीष्याभिमानस्य भवप्रवस्य । त्यागश्च साध्यः सुलभः कदापि
ज्ञात्वेति तत्त्यागविधिविधेयः ॥ १६९ ।।
अर्थ- इस संसारमें सुगन्धि तैल आदिके द्वारा होनेवाले विलेपन आदिका त्याग कर देना सरल है, वस्त्र आभूषण आदि अलंकारके साधनोंका त्याग कर देना सरल है, धनादिकका त्याग करना सरल है, स्त्रीका त्याग करना सरल है, घर-मकान आदिका त्याग करना सरल है, अन्न औषध आदिका त्याग करना सरल है, परन्तु जन्म-मरणरूप संसारको बढानेवाले मोह और कषायोंका त्याग करना कभी सरल नहीं