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________________ ( शान्तिसुधासिन्ध ) जीवः स्त्रयं भवति मोह कषायकोर्णः, स्यादर्पणोपि मणिसंगवशाद्विकारी ।। १६६ ॥ चक्राबिवण्डनिचयोस्ति निमित्तमात्रो मृद्वै स्वयं परिणता सुघटायारूपा। तन्तुः स्वयं पटमयो भवति स्वभावाद् जेयं तथैव भुवनेऽखिलवस्तुरूपम् ॥ १६७ ॥ अर्थ- जिस प्रकार लाल पीले आदि रंगके मणि लगानेसे दर्पणम विकार उत्पन्न हो जाता है, चक्र, दंड, आदिके निमित्तसे मिट्टी स्वय घटरूप वा अन्य बर्तनरूप परिणत हो जाती है, अथवा बनने के साधनोंके निमित्तसे तन्तु स्वयं पटरूप बन जाते हैं, उमी प्रकार इस जीवको मोह उत्पन्न करनेमे भाई, स्त्री, पुत्र, कुटुंबी लोग, तथा यह समस्त संसार निमित्तसे यह जीव स्वयं मोह और कयाय करने लगता है । भावार्थ - मिट्टीका घडा बनता है, परंतु उसमें चाक, दंड, कुम्हार, आदि परपदार्थ निमित्तकारण होते हैं । यद्यपि घडा बननेमें मिट्टी उपादानकदारण है, तथापि बिना निमित्तके वह मिट्टी घटरूप परिणत नहीं हो सकती । इसी प्रकार सूतके वस्त्र बनते हैं, परंतु उसमें भी वस्त्र बननेके साधन सब निमित्तकारण होते हैं । दर्पण अत्यंत निर्मल होता है, परंतु उसमें जिस रंगकी मणि लगा देते हैं उसी रंगका विकार उसमें हो जाता है । वह विकार यद्यपि दर्पणमें होता हैं तथापि बिना मणि आदि निमित्तकारणके वह विकार कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार इस जीवका यथार्थ स्वरूप यद्यपि अत्यंत शुद्ध और निर्मल है तथापि कर्मोके उदयसे अनादिकालसे ही विकार धारण कर रहा है । उन विकारोंके कारण यह स्त्री, पुत्र, आदि बुटम्बी छोगोंसे मोह करता है, धन-धान्यादिक पदार्थों को अपना मानता है, और उनकी रक्षा आदिके लिए अनेक प्रकारके पाप कर्मोका बंध करता रहता है । यदि • यह जीव स्त्री-पुत्र आदि कुटुंबी लोगोंसे अथवा धन-धान्यादिक बाह्य पदार्थोंसे मोह न करे, तो फिर उस आत्मामें कर्मोका बंध नहीं हो सकता । परपदार्थोंसे मोह न करने के कारण यह जीव अपने आत्माके
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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