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________________ ( शान्तिसुत्रा सिन्धु ) पूर्ण करने में लगा रहता है, ऐसा मनुष्य प्रत्येक अव सुख देनेवाले पात्रदान, जिनपूजन, व्रत, उपवास आदि कार्य ही किया करता है । भावार्थ - इस संसारमें नीमको तीन ही पोधमार्ग में लगनेमें रोकता है। मोहनीय कर्म में ही सबसे तीव्र दर्शनमोहनीय कर्म है। दर्शन मोहनीय कर्म सम्यदर्शनको प्रगट नहीं होने देता । सम्यग्दर्शनके प्रगट न होने से इस जीवको स्वपरभेदविज्ञान नहीं होता, और स्वपरभेदविज्ञान न होनेसे यह जीव अपने आत्मा के स्वरूपको भूल जाता है, और रागद्वेषादिक बाह्य विभूति आदि परपदार्थोंको अपना मान लेता है । परपदार्थोंको अपना मान देना, तीव्र अपराध है, और इसी अपराधके कारण यह जीव तीव्र अशुभ कर्मोका बंध करता रहता है। ऐसा जीव मोक्ष मार्गमं कभी नहीं लग सकता । जो जीव इस संसारके कारणभूत मोहनीय कर्मको नष्ट कर, सम्यग्दर्शन कर लेता है, तथा उस सम्यग्दर्शनस, स्वपरभेदविज्ञान होनेसे आत्मा के यत्रार्थं स्वरूपको समझने लगता है, और इसीलिए जो परपदार्थों में मोहित नहीं होता, परपदार्थ के मोहका सर्वथा त्याग कर देता है, और उस सम्यग्दर्शनके प्रभाव अनंत पुण्य संपादन करता रहता है, तथा अपने आत्माकी निर्मलताको वा शुद्धताको प्राप्त करनेके लिए सदाकाल प्रयत्न करता रहता है। इसके लिए जो चारित्रको धारण करता है, ध्यान वा तपदचरण करता है, वा गुप्ति समितियों का पालन करता है, ऐसा जीव प्रत्येक भवमें मोक्ष के साधनभूत तथा आत्माको अनंतसुख प्राप्त करनेवाले कार्य करता रहता है, और इस प्रकार बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है । अतएव भव्य जीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेनेका प्रयत्न करना चाहिए जिससे कि शीघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाय । प्रश्न - स्वयमात्मा विकारी स्याद्वा कस्यापि निमित्ततः ? ܘ܀ . अर्थ - हे स्वामिन्! अब यह बतलाइए कि यह आत्मा स्वयं विकाको उत्पन्न करता रहता है, अथवा किसीके निमित्तसे विकारोंको उत्पन्न करता है । उत्तर - जीवप्रमोहजनननेस्ति निमित्तमात्रं, बंधुः प्रिया परिजनोऽखिल विश्ववर्गः ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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