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________________ (शान्तिसुधा सिन्धु ) करनेवाले पुत्रका होना है। ऐसा पुत्र महा पुण्यकर्म के उदयमेही होता हैं इस प्रकार बहुतसे मित्र अपने स्वार्थ में फसकर अपने ही मित्रसे अनेक प्रकारके पापकार्य करते रहते हैं. ऐसे मित्रोंको शत्रुही समझना चाहिए । जो मित्र स्वयं सदाचारी हों, और अपने मित्रको मोक्षमार्गमेंही लगाते हीं ऐसे वारिषेणके समान मित्रकी प्राप्ति होना बहुत बड़े पुण्यकर्मके उदयसे होती है । इसलिए आचार्य महाराज कहा है कि सुख की सब सामग्री पुण्यकर्मके उदयसेही होती है, अन्य किमीसे नहीं हो सकती । इसलिए सुखकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक भव्यजीवको पुण्यकमका सम्पादन करना चाहिए । २५७ प्रश्न- शीघ्रं नयति जीवः कः कस्यवद् मे गुरो ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कौनमा जीव किसके समान अत्यंत शोध नष्ट हो जाता है ? उ. धनं ददाति ह्यविचार्य चाति, यो वाऽसहायो च कषायकीर्णः स्याच्छ्रिगामी सकलप्रदेशे, कुकार्यकर्ता विषयाभिलाषी ॥ मिथ्याभिमानी मदनेन मत्तो, वा केवलं वैरविरोधधारो | विरुद्धवेषी ममकारकारी, प्रध्वंसते कीटकवत् स शीघ्रम् ॥ अर्थ- जो पुरुष बिना विचार कियेही चाहे जिसको धन दे देता है, जो बिना कुछ विचार कियेही भोजन कर लेता है, जिसका एंगे संसार में कोई सहायक नहीं है, जो तीव्र कषायोंको धारण करता है, जो बिना देखे सर्वत्र शीघ्रताके साथ चलता है, जो सदाकाल कुकर्म वा अशुभ कार्य करता रहता है, जो सदाकाल विषय सेवनकी इच्छा करता रहता है, जो मिथ्या अभिमान धारण करता है, जो कामदेवके वशीभूत होकर सदाकाल उन्मत्त बना रहता है, जो सदाकाल वैर-विरोध धारण करता रहता है, जो अपना वेष और भूषा विरुद्ध रखता है, और जो तीव्र ममत्व धारण करता है वह पुरुष कीड़े मकोडोंके समान शीघ्रही नष्ट हो जाता है । भावार्थ- प्रथम तो कीड़े-मकडोंकी आयुही बहुत कम होती है, दूसरे उनकी मृत्युके साधन प्रतिसमय बने रहते हैं । मार्ग में चलते हुए किसीका पैर पड जाता है तो भी उनकी मृत्यु हो जाती है। इनके सिवाय
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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