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( शान्तिसुधा सिन्धु )
सामग्री पुण्यकर्मके उदयसेही होती है। जिस पुरुष के जितने पुण्यकर्मका उदय होता है उतनेही सुखकी सामग्री उसको प्राप्त होती है। पुण्यकर्मका सबसे अधिक उदय चक्रवर्तीको होता है, इसलिए चक्रवर्तीको सबसे उत्तम संपत्तियां प्राप्त होती हैं। इस संसार में पुत्र, स्त्री, धन आदिकी प्राप्ति होना सरल है, प्रायः सबकेही होते हैं, घरभी सव गृहस्थों को होता है। धनभी सबको होता है और पुत्र-स्त्रीभी प्रायः सबको होती है, परंतु पात्रदान और जिनपूजामें काम आनेवाला धन विरोंकोही होता है । दान और जिनपूजनके काम में आनेवाला धन बीजके समान समझा जाता है। जैसे एक बीजको बोनेमे उस वृक्षपर सैकडों फल लगते हैं, उसीप्रकार पात्रदान और जिनपूजनके काम आनेवालाधन अनंत विभूतिका कारण होता है। वास्तवमें देखा जाय तो ऐसाही धन महापुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त होता है । जो धन पापकार्यों में लगता है वह नरक - निगोद में डुबानेवाला होता है, इसलिए उस धनका कारण श्रेष्ठ पुण्य नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार जो स्त्री सुशीला नहीं होती वह स्वयं नरकमें जाती है और घरके किरानेही लोगोंको इसी लोकमें अनेक दुःख देकर नरक ले जाती है इसलिए ऐसी स्त्रीसे स्त्रीका का न होनाही अच्छा है । जो सुशील स्त्री होती है, वह स्वयं पुण्य उपार्जन करती है, और रानी चेलनाके समान अपने पतिको वा घरके अन्य लोगों को भी अपने आत्माके कल्याणमें लगा देती है। इसलिए ऐसी स्त्री श्रेष्ठ पुण्य कर्मके उदयसेही प्राप्त होती हूँ । घरमें सब गृहस्थ रहते है, परंतु घर वही धन्य गिना जाता है, जिससे बहार के लिए मुनियोंके चरणकमल सुशोभित होते है, अथवा जिसमें पूजा प्रतिष्ठा सदाकाल होती रहती है ऐसा घर बहुत बड़े पुण्यकर्मके उदयसेही प्राप्त होता है । इसप्रकार पुत्रभी कुपुत्र होते हैं, जो माता पिताको दुःख पहुंचाते हुए स्वयं नरक जाते हैं, और माता - पिताकोभी ले जाते हैं । ऐसे पुत्रोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता । जो पुत्र विद्वान् होते हैं और सगरचक्रवर्तीके पुत्रोंके समान आत्मकल्याण में लग जाते हैं, ऐसे पुत्रही श्रेष्ठ पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होते हैं । तीर्थकरके माता-पिता महा पुण्यवान् गिने जाते हैं। इंद्र और इंद्रायणी दोनोंही उनकी सेवा करते है । इसका एकमात्र कारण उनसे तीर्थकर जैसे संसारभरको उद्धार
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