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________________ { शान्तिसुधासिन्धु ) १५१ प्रश्न- कस्य तिष्ठति पार्वे भी मुक्ति, मुखदा बद? अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मुख देनेवाली मुक्ती किस महापुरुषके समीप रहती है ? उत्तर - बाह्यादिसंगप्रविमुक्तमृत्तः, कृपाक्षमाशांतिसुखाश्रितस्य । सच्छुद्धचिद्रूपपदस्थितस्य, स्वानन्दतृप्तस्य यतीश्वरस्य ।। २२८॥ मुक्तिःसदा तिष्ठति पार्श्वएथ, विद्यादिदेवीव सुमंत्रमुग्धा। ज्ञात्वेति चिद्रूपपदे पवित्रे, तिष्ठन्तु भव्याः खलु मुक्ति हेतोः ॥ २२९ ॥ अर्थ- जिस प्रकार विद्यादेवी वा अन्य देवियां अपने-अपने वाचक मंत्रोसे मुग्ध होकर आराधन करनेवालेके समीप अपनेआप चली आती है, उसी प्रकार जो मुनिराज अंतरंग-बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देते हैं कृपा, क्षमा, शान्ति, और आत्मजन्य आनंदके आश्रित रहते हैं, सर्वोत्तम शुद्ध चिदानन्द पदमें विराजमान रहते हैं, और अपने आत्मजन्य आनंदसे सदाकाल तृप्त रहते है । ऐसे मुनिराजोंके समीप यह मुक्ति सदाकाल विराजमान रहती है । यही समझकर भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए अत्यंत पवित्र ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप अपने शुद्ध आत्मामें सदाकाल लीन रहना चाहिए। भावार्थ-- जो लोग मंत्र जपकर, देवताओंका आराधन करते हैं। उनके पास वे देवता उन मंत्रोके आधीन होकर अपनेआप चले आते हैं । इस प्रकार जो मुनिराज मुक्तिकी आराधना करते हैं, उनको मुक्ति भी अवश्य प्राप्त होती है । मुक्तिका अर्ध छूटना है । यह जीव अनादिकालसे कर्मोंसे बंधा हुआ है । अतएव उन समस्त कर्मोसे छूट जानाही मुक्ति कहलाती है। वे कर्म अंतरंग-बहिरंग परिग्रहोंसेही बंधते हैं, इसलिए वे मनिराज उन कर्मोको नाश करनेके लिए सबसे पहिले अंतरंग-बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका सर्वथा त्याग कर देते
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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