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( शान्तिसुधासिन्धु )
हैं; समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे फिर मुनिराज किसी पापसे लिप्त नहीं होते, इस प्रकार वे मनिराज कर्मोके आने केमार्ग बंद कर देते हैं । इसके सिवाय वे मुनिराज समस्त कषायोंका त्याग कर तथा समस्त इन्द्रियोंका निग्रह कर, कृपा, क्षमा, शांति आदि आत्माके गुणोंको धारण करते हैं । रागद्वेषका त्याग कर, आत्मजन्य मुखसे सुखी होते हैं । इसप्रकार वे मनिराज आगामी कर्मबंधको रोककर कृपा, क्षमा, शांति, समता, आदि आत्मगुणोंके द्वारा आत्माके साथ लगे हुए पिछले कर्मोको नष्ट करले हैं। वे मुनिराज इस प्रकार अपने आत्माको कषायरहित अत्यंत पवित्र, निर्मल बनाकर अपने आत्मजन्य चिदानंद स्वरूप में स्थिर और लीन हो जाते हैं, तथा फिर वे उस शुद्ध चतन्यमय सखसे तृप्त रहते हैं । इसप्रकार जब वे मुनि अपने आत्मध्यानद्वारा उस मुवितका आराधन करते हैं, तब वह मुक्ति सदाकाल उनके पासही रहती है, अर्थात् ऐसे मनिराज शीघ्रही उरा ध्यानद्वारा अपने समस्त कौंको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इसलिए आचार्य महाराज यही उपदेश देते हैं कि, भव्यजीवोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिए समस्त परिग्रहादिकोंका त्याग कर, अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मामे लीन होनेका प्रयत्न करना चाहिए । __ प्रश्न - कर्ममल्लनिरोधार्थ कि कार्य वद मे प्रभो !
अर्थ – हे प्रभो ! कृपा कर यह बतलाइए कि इस कर्मरूपी मल्लको रोकनेके लिए क्या-क्या कार्य करना चाहिए। उत्तर - क्रोधादिमोहस्य विनाशकर्तु
विज्ञानमल्लस्य सुखप्रवस्य । नित्यं निवासःसुखदोस्ति यत्र स्वानेपि तत्रात्मनि चित्स्वरूपे ॥ २३० ॥ न फर्ममल्लस्य भवेग्निवासस्ततः प्रमूढः स बहिः प्रयाति । ज्ञात्वेति विज्ञानभटोस्ति सेथ्यः कुकर्ममल्लस्य निरोधनार्थम् ॥ २३१ ॥