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________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) अर्थ - यह स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल, क्रोधादिक कपायपी मल्लोको और मोहरूपी हालको नाश करबला है, और दाल आत्माको सुख देनेवाला है। ऐसा यह स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल जिस चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मामें अपना मुख देनेवाला निवासस्थान बना लेता है, उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामें कर्मरूपी मल्लका निवास कभी नहीं हो सकता। फिर तो वह कर्मरूपी मल्ल उस विज्ञानरूपी मल्लके निवास स्थान से बाहर होकर दूर भाग जाता है। यही समझकर भव्यजीवोंको अशुभ कर्मरूपी मल्लको रोकने वा भगानेके लिए विज्ञानरूपी मल्लकी सेवा करनी चाहिए । १५३ भावार्थ ये कर्म बहुत बड़े मल्ल हैं । इनका उदय किमो में नहीं रोका जा सकता | देखो ! इन कर्मो केही उदयसे रामचन्द्र, लक्ष्मण ऐसे योद्धाओंकोभी वन-वन में भटकना पडा, इन कर्मो केही उदयसे सती सीताको अनेकवार दुःख भोगने पडे, इन कर्म केही उदयसे सती अंजनाको महादुःख भोगने पड़े। औरोंकी बातही क्या है, यह कर्मोंका उदय तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ता । इन्द्र चक्रवर्ती आदि किसीको नहीं छोडता, इसलिए इन कर्मोको महाबलवान माना है। ये कर्म इस संसार में किसी से नहीं हारते हैं। यदि हारते हैं, तो एक स्वपरभेदविज्ञारूपी मल्लसे हारते हैं । इन कर्मरूपी मल्लोंको स्वपरभेदविज्ञानरूपी महामल्लका इतना डर लगता है, कि जिस चैतन्यस्वरूप आत्मामे स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल अपना निवासस्थान बना लेता है, अर्थात् जिस आत्माको स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, उस आत्मा में फिर बे कर्मरूपीमल्ल कभी नहीं रह सकते । फिर वे कर्म उस आत्मा निकलकर दूर भाग जाते हैं, स्वपर भेदविज्ञान प्रगट होनेपर अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट होनेपर यह आत्मा ध्यान, तपश्चरण आदिके द्वारा बहुत शीघ्र उन कर्मीको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसलिए भव्यजीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेना चाहिए और फिर चरित्र धारणकर, ध्यान वा तपश्चरणद्वारा अपने समस्त कर्मोंको नष्ट कर मोक्षप्राप्त कर लेना चाहिए । आत्मा के लिए यही कल्याणका सर्वोत्तम मार्ग है । -
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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