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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) क्योंकि संक्लेश परिणाम होनेसे आत्माकी शांति नष्ट होती है, और इसीलिए उन सक्लेश परिणामोंसे अशुभ कर्मोका बंध होता है। आत्माम शांति धारण करनेसे अशुभ कर्मोंका बंध नहीं होता, और पहलेके संचित कर्मभी नष्ट हो जाते हैं। इसीप्रकार कषायोंका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है, और स्वदेश वा कुटुंबवर्गका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है। अतएव समस्त भव्यजीवोंको शांति धारण करना परमावश्यक है, और यही आत्मकल्याणका कारण है। प्रश्न- दीनतादिर्बद स्वामिन् किमर्थं त्यज्यते भुवि ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अत्र कृपाकर यह बतलाइए कि दीनना मूर्खता आदिका मा इस संसान किया जा है ? उत्तर - दीनता मूर्खता निद्या नीचता धर्महीनता । क्रूरता वैरताऽशान्तिनिन्दकतातिमन्दता ॥ ४६१ ॥ परता भीरुताऽकोतिर्दुर्जनतातिलोभता। शान्त्यर्थ केवलं सर्वास्त्यज्यंते लोकमूढता ।। ४६२॥ वृथा स्यात्तद्विना त्यागस्त्यत्ककंचुकसर्पवत् । ज्ञात्वेति सुखदा शान्तिर्धारणीया निरन्तरम् ॥ ४६३ ।। अर्थ- इस संसारमें जो दीनता, मूर्खता, निदनीयता, नीचता, धर्महीनता, ऋरता, वैर, विरोध, अशांति, निंदा करना, अत्यंत मंद वा आलसी होना, परपदायोंमें लीन होना, भय, अपकीति, दुर्जनता, अत्यंत लोभ, और लोकमहता आदिका जो त्याग किया जाता है, वह केवल शांति के लिए किया जाता है। जिस प्रकार सर्पके लिए कांचलीका त्याग कुछ कार्यकारी नहीं होता, व्यर्थही होता है, उसी प्रकार इन सबका स्याग करकेभी यदि शांति प्राप्त न हो, तो फिर उस सब त्यागको व्यर्थ समझना चाहिए, यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवोंको सदाकाल अपने हृदयमें मुख देनेवाली शांति धारण करना चाहिए । भावार्थ- दीनता, मूर्खता आदि जो ऊपर दिखलाये हैं, वे सत्र मनुष्योंके अवगुण हैं । जहां अवगुण होते हैं, वहांपर अनेक प्रकारकी आकुलताएं उत्पन्न होती है, तथा जहाँ आकुलताएं होती हैं, वहांपर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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