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________________ ३१८ ( शान्तिसुधासिन्धु ) कभी शांति नहीं हो सकती। इसलिए इन सबका त्याग शांतिके लिएही किया जाता है । अवगुणोंका त्याग करनेसे आत्माके गुणोंकी वृद्धि होती है, तथा आत्माके गुणोंकी वृद्धि होनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है। यदि इन अवगुणोंका त्याग करके भी आत्मामें शांति प्राप्त न हो तो, समझना चाहिए कि वह अवगुणोंका त्याग मिथ्या और व्यर्थ है। अतएव सभी भव्यजीवोंको अपने समस्त अवगुणोंका त्याग कर, आत्मामें परम शांति धारण करना चाहिए । यह शांतिही आत्माके कल्याणका उत्कृष्ट साधन है। प्रश्न- लाभालाभं समग्नं हि किमर्थ मन्यते वद ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह वत्तलाइए कि मुनिलोग लाभअलाभ वा सुख-दुःख आदिमें समता धारण क्यों करते हैं ? उ. लाभे ह्यलाभे सुजनेपि दुष्ट हन्येऽप्यदव्यां हि सुखेपि दुःखे । प्रियेऽप्रिये वस्तुनि चात्मवाह्ये मानापनाने रिपुबन्धुव॥ रोगे विरोगेपि जलस्थले खे भोगोपभोगे ध्रियते समत्वम् । शान्त्यर्थमेवं क्रियते प्रयोगः स तद्विना स्याद् बकवत् प्रदुष्टः ।। अर्थ- इस संसारमें लाभ-अलाभ, सज्जन-दुर्जन, घर, वन, सुखदुःख, प्रिय-अप्रिय आदि पदार्थो में, वा आत्मासे भिन्न अन्य पदार्थोमें, वा, मान-अपमानमें, शत्र वा बंधुओंमें, रोग वा नीरोगतामें, जलमें, स्थलमें, आकाशमें और भोगोपभोगों में जो समता धारण की जाती है, वह केवल शांतिके लिएही की जाती है। यदि इन सबमें समता धारण करकेभी आत्मामें शांति प्राप्त न हो तो, फिर उस समताको बगुलाओंकोसीहो दुष्टता समझना चाहिए। __ भावार्थ- किसी पदार्थका लाभ होनेपर हर्ष मनाया जाता है, और उसकी प्राप्ति न होनेपर शोक वा दुःख मनाया जाता है। परंतु हर्ष वा शोक दोनोंके होनेमें आकुलता होती है, तथा आकुलताही दुःख है। अतएव उस आकुलताको दूर करनेके लिए, वा आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए लाभ-अलाभ दोनों में समता धारण की जाती है। इस प्रकार सज्जनसे मिलकर सुख होता है, और दुष्टसे मिलकर दुःस्त्र होता है, तथा सुख-दुख दोनोंमें आकुलता होती है । उस आकुलताको दूर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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