________________
( शान्तिसुधासिन्धु)
मनुष्य कुमनुष्य कहलाता है। इसलिए मनुष्यजन्म पा करके मन वचन कायमें सरलता और शांति धारण करना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न – देवादिकृतोपसमें किमर्थं सहते मुनिः
अर्थ- हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइए कि देव वा मनुष्यादिके द्वारा किया हुआ उपसर्ग मुनिराज, किस लिए सहन करते हैं ? उ.-देवर्नरर्थाथ खगैस्तिरचा कुटुंबवगंश्च खलैः कुभूपैः ।
दत्तं क्षणात्प्रागहरं च दुःखं कृतोपसगं सहते ह्यसाह्यम् ॥ मानापमानेन भवां प्रपीडां कार्य कषायं स्वजनं स्वदेशम् । शान्त्यर्थमेव त्यचतीति साधुः मही यथा वा सहते हि सर्वम् ॥
अर्थ- मुनिराज अपने आस्मा में परम शांति धारण करनेके लिएही देबोंके द्वारा, मनुषोंके द्वारा, विद्याधरोंके द्वारा वा तिर्यंचोंके द्वारा अथवा कुटंबी लोगोंके द्वारा, दुष्ट लोगोंके द्वारा, वा नीच राजाओंके द्वारा दिए हुए और प्राणोंका हरण करनेवाले दुःखोंको सहन करते हैं। तथा इन्हींके द्वारा किए हुए असह्य उपसगोंको सहन करते हैं। और मानअपमानसे होनेवाली भारी पीडाकोभी सहन करते हैं। इसके सिवाय बे मुनिराज शांतिके लिएही काय-कषाय, स्वजन और स्वदेशका त्याग करते है। जिस प्रकार पृथ्वी सब कुछ सहन करती है, उसी प्रकार वे मुनिराजभी समस्त उपसर्गोंको सहन करते हैं।
भावार्थ- लोग पृथ्वीको कूटते है, खोदते हैं, इसपर थूकते हैं, मलमूत्र करते है, कडा कचरा फेंकते है और न जाने क्या-क्या करते है, परंतु वह पृथ्वी सब कुछ सहन करती रहती है। इसीप्रकार मनिराजकोभी बहुतसे लोग दुःख दिया करते हैं, बहतसे देव अनेक प्रकारके उपसर्ग करते है. बहुतसे विद्याधर अनेक प्रकारके उपसर्ग करते हैं,, बहुतसे सिंह, व्याघ्र आदि पशुभी दुःख दिया करते हैं, बहुतसे मनुष्य वा दुष्ट राजा वा अनेक कुटुंबी लोग उन मुनियोंको दु:ख दिया करते हैं। उन सब उपसर्गोको बा दुःखोंको बे मुनिराज सहन करते हैं। इसके सिवाय अनेक प्रकारके अपमानजनक वचन वा पीडाएं सहन करते है। उन मुनियोंका यह सब सहन करना केवल शांति के लिए होता है । वे मुनिराज अपने मन में कभी संक्लेशता वा आकूलता उत्पन्न होने देना नहीं चाहते,