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( मान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर - यैर्यनतश्चित्तनिरोधितश्च
त्यक्तास्तथा स्त्रीधनपुत्रसंगः । अनात्मविद्या भवदा प्रमुत्का दुःखपदः क्रोधरिपुश्च त्यक्तः ॥ १७८ ॥ स्थानन्दभाजां सहवाससेवा कृता न तेषां विनयोपचारः । वा तर्न सार्द्ध निजत्वचर्चा कथं वेच्चित्तनिरोधनं वा ॥ १७९ ॥ सिद्धो यथा वातहतप्रदीपः प्रकम्पते वृक्षततिः किलारिधः संसर्गतः स्युर्मुनयोपि भ्रष्टाः
गुरुप्रसादाच्च निजात्मनिष्ठाः ।। १८० ॥
अर्थ- जो लोग बड़े प्रयत्नके साथ अपने चित्तको निरोध करनेका प्रयत्न करते हैं, जो स्त्री, पुत्र, धन आदि परिग्रहका भी त्याग कर देते हैं, जन्म-मरणरूप संसारको बढ़ानेवाली लौकिक विद्याओंका भी त्याग कर देते हैं, और महा दुःख देनेवाल मोधरूप शत्रुका भी त्याग कर देते हैं, परंतु जो लोग अपने आत्मजन्य आनंदम मग्न रहनेवाले गुरुओंकी मंगति नहीं करते, उनकी सेवा नहीं करते, उनकी विनय नहीं करते, उनकी वैयावृत्त्य नहीं करते, और उनके साथ आत्म-तत्त्वकी चर्चा भी नहीं करते । ऐसे लोगोंके चित्तका निरोध कैसे हो सकता है ? संसारमें यह बात प्रसिद्ध है, कि बायकी संगतिमे दीपक हिलने लगता है । वायुको संगतिसे वृक्ष भी हिलने लगते हैं, और समुद्र भी क्षुब्ध हो जाता है। इसी प्रकार नीच लोगोंकी संगतिसे मुनि लोग भी भ्रष्ट हो जाते हैं, और गरुको कृपासे वे ही मनि अपने आत्मामें लीन ही जाते हैं।
भावार्थ- ' संदिग्धं हि परिज्ञानं गुरुप्रत्यय विवजितम् ' अर्थात् किसी मनुष्यको चाहे जितना ज्ञान हो जाय, और वह ज्ञान यथार्थ भी हो, तथापि जो ज्ञान गुरु मुखसे प्राप्त नहीं किया जाता, उस ज्ञानमें