SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (शान्ति सुधासिन्धु ) सदाकाल संदेह बना रहता है । यही कारण है, कि चित्तको निरोध करनेका चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, उसके लिए समस्त परिग्रहों का त्याग किया जाय, काय कि जानका विद्याओंको छोडकर अध्यात्म विद्याका अध्ययन किया जाय, तथापि विना गुरुकी सेवा किये बिना गुरुवासमें रहे, वित्तका विरोध नहीं हो सकता | चित्तका निरोध करना अभ्यास से साध्य है, और वह मुनि आवास में ही रह कर हो सकता है। इस संसार में जैमी मंगति मिलती है, वैसा ही प्रभाव पडता है । यह मनुष्य अच्छी संगतिसे अच्छे मार्गपर चल सकता है, और बुरी संगति से बुरे मार्गपर चल सकता है । यहां तक कि. बुरी संगति मुनि भी अपने मोक्षमार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं, और वही मुनि अपने आचार्य वा गुरुकी संगति से फिर मोक्षमार्ग में स्थित हो जाते हैं । अतएव चित्तका निरोध करनेके लिए गुरुकी चरण में ही रहना चाहिए, उन्हीं को सेवा करनी चाहिए, उन्हींका विनय करना चाहिए. और उन्हीं से अभ्यास करना चाहिए। यह मनुष्य यदि संसारसे पार हो सकता है, वा मोक्ष मार्ग में स्थित हो सकता है, तो निग्रंथ वीतराग गुरुकी कृपासे ही संसारसे पार हो सकता है, और उन्होंकी कृपासे मोक्षमार्गम स्थित हो सकता है। इसलिए भव्य जीवों को अपने चित्तका निरोध करने के लिए और इन्द्रियोंका निग्रह करनेके लिए वीतराग निद्र्य गुरुके समीप ही रहना चाहिए । चित्तका निरोध करनेके लिए इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है । ११९ प्रश्न- बिना सर्वविश्वोपि शून्यस्ते प्रतिभाति के ? अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जिनके बिना यह समस्त संसार शून्य दिखाई पड़ता है, ऐसे वे कौन हैं ? उत्तर - यथार्थतत्त्वप्रविवशंकेन, स्वानन्यमूर्त्या गुरुणा विना हि । प्रम्पूर्णविश्वं प्रतिभाति शून्यं, सूर्येण होर्न च दिनं यथा कौ ॥ १८१ ॥ निःस्वार्थ बुद्धधा गुरुरेव धीरो, बोधामृतं मिष्टतरं पवित्रम् ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy