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________________ { शान्तिसुधासिन्च) स्यार कर देनेसे स्वात्मानुभूति दासीके समान अपने निकट आ जाती है, और अनुक्रमसे मोक्ष भी अत्यंत समीप आता है। __ भावार्थ-- यहांपर मोक्षकी प्राप्ति स्वपरभेदविज्ञानसे बतलाई है, तथा स्वपरभेदविज्ञानका होना सम्यग्दर्शनका कार्य है. जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक स्वपरभेदविज्ञान कभी नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शनके होनेपर ही स्वपरभेदविज्ञान होता है। इसलिए बिना सम्यग्दर्शन के चाहे जितना तपश्चरण किया जाय, चाहे जितना जप किया जाय, चाहे जितना साधुका वेष धारण किया जाय, और चाहे जितना व्रतउपवास किया जाय, परंतु बिना सम्यग्दर्शनके उस, जप, तप वा व्रत, उपवाससे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । इसका भी कारण यह है, कि आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान समग्दर्शनके प्रगट होनेपर ही होता है । आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेसे यह आत्माके स्वरूपको ग्रहण करने लगता है और आत्मामें रहनेवाले राग-द्वेषादिक कषायोंको गलिक रमसा मामका त्याग कसा प्रयत्न करता है। इस प्रकार राग-द्वेषका त्याग कर, अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है, और अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है, परन्तु जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक आत्मज्ञान वा स्वपरभदविज्ञान प्रगट नहीं होता, तथा दिना स्वपरभेदविज्ञानके वह परपदार्थोका वा राग-द्वेषादिकका त्याग किए बिना, जप, तप सब निरर्थक हो जाता है, इसलिए विना सम्यग्दर्शनके जो तप, जप, वा प्रत-उपवास किया जाता है, वह सब मिथ्या कहलाता है । उस मिथ्या जप-तपमें वा ब्रत-उपवासमें अन्तरंग कषायें अवश्य विद्यमान रहती है, इसलिए उस मिथ्या जप-तपमे, मिथ्या व्रत, उपवाससे मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती। अतएव मोक्ष प्राप्त करनेके लिए भव्य जीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए, तदनंतर राग-द्वेषादिकका त्यागकर अपने आत्माको शुद्ध कर लेना चाहिए । यही मोक्ष प्राप्त करनेका सरल उपाय है। प्रश्न- यत्नः कृतश्चित्तनिरोधनार्थ, तथापि चित्तं न निरुध्यते किम् ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कुपाकर यह बतलाइये कि हम लोग इस मनको रोकने का प्रयत्न करते हैं, तथापि यह मन रुकता क्यों नहीं है।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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