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( शान्तिसुधासिन्धु )
रहित है, समस्त बाधाआम रहित है. सरकार है, सबाल विकारोंसे, समस्त रोगोंसे रहित है, और सदा इसी प्रकार शुद्ध अवस्था में रहनेवाला है। ऐसे अपने शुद्ध स्वरूप आत्मामें जो सदाकाल लीन रहता है, तथा जो सदा अनंत सुखी रहता है, और समस्त जीवोंको सुख देनेवाला है, ऐसा जीव अवश्य ही मोक्षमें जा विराजमान होता है।
भावार्थ-- जो जीव अपने आत्माके सन्मुख है अर्थात् परपदार्थोंका मंबंध छोडकर वा उनसे ममत्व छोड़कर अपने आत्माकं गद्ध स्वरूपमें लीन रहता है, वह महापुरुष संसारक समस्त क्लेशोंमें रहित होकर अनंत सुख में मग्न हो जाता है, तथा समस्त जीवोंको मुख देनेवाला होता है, वा सुखका कारण होता है, और ऐसा जीद अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। प्रश्न- शीतवर्षादिकाले कि दानधर्मधनार्जनम् ।
समरूपेण कार्य वा न्यूनाधिकगुरो वद ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि शीतकालमें वा ग्रीष्मकालमें और वर्षाकालमें गृहस्थ श्रावकोंको दान-धर्म और धनका उपार्जन समान रीतिसे करना चाहिये अथवा कुछ हीनाधिक रीतिसे करना चाहिये ? . . उत्तर - मुख्यरीत्याष्टमासे हि कार्य धनार्जनाविकम् ।
व्रतोपवासयोगादि गौणरीत्येव धार्मिकः ।। ११७ ।। गौणरीत्या चतुर्मास कार्य धनार्जनं तथा । स्वानन्दस्वादकाः सन्तः सन्ति यत्रात्मदर्शकाः । तत्र गत्वार्चनं दान कार्य प्रश्नोत्तरादिकम् । यथाशक्ति तपोध्यानं स्वात्मा स्याविमलो यतः पूर्वोक्तरीत प्रविहाय मूर्खः स्वच्छन्दरीत्या भुवि केवलं यः। धनार्जनं ह्येव करोति नित्यं स एव पापी पशुतः पशुश्च ॥ १२० ।।