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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) यह प्रतिक्रमण व्यवहारिक दृष्टिसे अशुभ कर्मोका नाश करनेके लिए और शभ कर्मोका संचय करने के लिए किया जाता है । प्रतिक्रमण करनेसे यह आत्मा राग-द्वेषसे रहित होकर अपने आत्माके शुद्ध रनभान में लीन हो जाता है । और मुद्ध स्वभावमें लीन होनेमे निरलर अपने आत्माके आधीन रहनेवाला शुद्धात्म साम्राज्य प्राप्त हो जाता है । भावार्थ- पापोंको दूर करनेके लिए वा पाप शांत करने लिए प्रतिक्रमण किया जाता है, परंतु वह प्रतिक्रमण आत्मज्ञानके माथ होता है। प्रतिक्रमणमें पापोंकी आलोचना की जाती है, तथा आगामी कालमें ऐसे पाप न हों। ऐसी भावना की जाती है । यदि अतिक्रमण करनेवालेको आत्मज्ञान न हो अथवा सम्यग्दर्शन न हो, तो वह पापोंकी आलोचना भी मिथ्या हो जाती है, और पाप न करने की भावना भी मिथ्या हो जाती है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेमें वह मनुष्य फिर भी पाप कर्माको करता ही रहता है । इस प्रकार वह प्रतिक्रमण करता हआ भी पापोंका संचय करता रहता है, और संसार में परिभ्रमण किया करता है. इसलिए सम्यग्दर्शनके होनेपर जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वही प्रतिक्रमण पापोंका नाश कर सकता है, और पुण्यका संचय कर सकता है । सम्यग्दर्शन के साथ-साथ जब पूर्ण चारित्र धारण कर लिया जाता है, तब निश्चय प्रतिक्रमण करनेका उद्योग किया जाता है । उस निश्चय प्रतिक्रमणसे आत्माकी शुद्धता प्राप्त होती है, राग-द्वेष सब दूर हो जाते हैं । यह आत्मा अपने शुद्ध स्वभावम लीन और स्थिर हो जाता है । तदनन्तर समस्त कर्मोको नष्ट कर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है, और सदाकालके लिए अजर-अमरपद प्राप्त कर अनन्त सूखका स्वामी बन जाता है, इसलिए सम्यग्दर्शनके साथ ही प्रतिक्रमण करना सार्थक है। बिना सम्यग्दर्शनके प्रतिक्रमण करना निरर्थक है। प्रश्न-- केन कृत्येन सिद्धिः स्यान्नवा केन प्रको वद ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि किन-किन कामोंके करनेसे आत्माकी सिद्धि हो जाती है, और किन-किन कामोंके करनेमे आत्माकी सिद्धि नहीं होती ?
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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