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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) उत्तर - मालाजि निधान रणनि सायम् लोके कषायान जयेत्प्रदुष्टान् । त्यजेसथा न प्रमवाप्रसंगं संसारमूला बहिरात्मबुद्धिम् ॥ १९८ ॥ सुदेवशास्त्रादिगुरोश्च याव दनन्यभक्तचा भवरोगहर्तुः । श्रद्धां न कुर्याद्विनयोपचार तायद् भवेन्नैव तवेष्टसिद्धिः ॥ १९९ ॥ अर्थ- इस संसारमें यह मनुष्य जबतक नियनीय इंद्रियोंके विषयों को नहीं रोकप्ता, जबतक दुष्ट कषायोंको नहीं जीतता, जबतक स्त्रियोंके संसर्गका त्याग नहीं करता, और जबतक जन्ममरणरूप संसारकी मल कारण ऐसी बहिरात्मबुद्धिका त्याग नहीं करता, तथा जबतक अनन्य भक्ति पूर्वक जन्ममरणरूप संसारको हरण करनेवाले देव-शास्त्र-गुरुकी श्रद्धा नहीं करता। जबतक उनका विनय नहीं करता, और जबतक देव-शास्त्र-गुरुकी पूजा भक्ति नहीं करता, तबतक इस जीवको इष्ट सिद्धिकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। भावार्थ- इस संसारमें पांचों इंद्रियोंके विषयोका सेवन करनेसे आत्माकी सिद्धि कभी नहीं होती, कषायोंको धारण करनेसे आत्माकी सिद्धि कभी नहीं होती, स्त्रियोंका संसर्ग रखनेसे आत्माकी सिद्धी कभी नहीं होती और बहिरात्म बुद्धिको धारण करनेसे आत्माकी सिद्धी कभी नहीं होती । इसका कारण यह है, कि इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा और कषायोंका होना मोहनीय कर्मके तीन उदयसे होता है. तथा बहिरात्म बुद्धि का होना भी मोहनीय कर्मके तीब्र उदयसे होता है, जो बुद्धि आत्मरूप नहीं होती, आत्मासे भिन्न शरीरादिक पदार्थों में ही आत्मरूप बुद्धि हो जाती है, उसको अहिरात्म बुद्धि कहते हैं। बहिात्म बुद्धिके होनेसे ही यह आत्मा शरीरकोही आत्मा मान लेता है, अथवा शरीर और आत्माको एकही समझ लेता है, इसलिए शरीरसे ममत्व करने लगता है, तथा धन-धान्यादिक अन्य पदार्थोंसे भी ममत्व वा मोह करने लगता है । इन सबसे मोह करनेके कारण वह महापाप
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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