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( शान्तिसुधसिन्धु )
उत्पन्न करने लगता है, और अनन्तकालतक संसारमें परिभ्रमण करने लगता है । यही कारण है, कि ऐसे आत्माको मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । जब यह आत्मा अपने मोहनीयकर्मको नष्ट कर देता है, और बहिरात्म बुद्धिको त्याग कर विषयकषायों का त्याग कर देता है, तथा देवशास्त्र गुरुका यथार्थ स्वरूप समझकर उनका श्रद्धान करने लगता है, तथा उनको पूजा भक्ति करने लगता है, और इस प्रकार अपने आत्माको निर्मल बनाकर रत्नत्रयकी वृद्धि करनेमें लग जाता है, तथा तपश्चरण और ध्यानके द्वारा रत्नत्रयकी पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तभी इस जीवको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, फिर यह जीव सदाकालके लिए अनन्त सुखी हो जाता है । इसीको इष्ट सिद्धि कहते हैं ।
प्रश्न- निन्दास्तुतिकृते कस्मिन्नपि साधुः करोति किम् ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि यदि कोई पुरुष किमी साधुकी निंदा करे, अथवा स्तुति करे, तो वे साधु निंदा करनेपर क्या, करते हैं ?
उत्तर - कश्चित्प्रमूढो गुणदोषशून्यः
स्वात्माश्रितान् वाखिलसंगदूरान् । वृष्ट्वा सुसाधून् खलु निर्दयेन हन्ति प्रदुष्टं वचनं ब्रवीति ॥ २०० ॥ रुत्यबोधाविति निम्बतीह
स्तनीति कश्चित्रमति प्रवीणः । सेवादिभक्ति च करोति कांचित् तथापि सन्तो न चलन्ति धर्मात् ॥ २०१ ॥
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यावृक् मतिर्यस्य भवेद्धि जन्तो स्तादृक् क्रियांस सुखदुःखदात्रीम् । करोति बुध्येति निजात्मदेशे त्यक्त्वा कषायं भवतु प्रभग्नः ॥ २०२ ॥